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प्रकीर्णकसमवाय
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योजन का मोटा है उसमें एक सौ योजन ऊपर और एक सौ योजन नीचे छोड़ कर बीच के ८०० योजन में वाणव्यन्तर देवों के विहार नगर - क्रीडास्थान कहे गये हैं। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समय में उत्कृष्ट ८०० साधु अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले थे, जिनकी गति कल्याणकारी एवं उत्तम थी, जिनकी स्थिति कल्याणकारी एवं उत्तम थी और जो आगामी भद्रक थे अर्थात् वे वहाँ से चव कर आगामी अव में मोक्ष प्राप्त करेंगे। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमिभाग से ८०० योजन ऊपर सूर्य भ्रमण करता है। बाईसवें तीर्थङ्कर श्री. अरिष्टनेमिनाथ भगवान् के देवता और मनुष्यों की सभा में वाद में पसजित न होने वाले ८०० . वादियों की वादिसंपदा थी, ॥ ८०० ॥ - विवेचन - रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन कांड हैं - खरकाण्ड, अप्प बहुल काण्ड, पंक बहुलकाण्ड। पहले खरकाण्ड के सोलह विभाग हैं। इनमें से प्रथम रत्नकाण्ड १००० योजन का मोटा है। उसके १०० योजन ऊपर और सौ योजन नीचे छोड़ कर बीच के ८०० योजन में वाणव्यन्तर देवों के आवास हैं। ये नगर के आकार वाले हैं। ये वाणव्यन्तर देवों के क्रीडास्थान हैं। . समक्ल भूमिभाग से ७९० योजन ऊपर जाने पर तारामण्डल है। वह मोटाई में ११० योजन मोटा है। चौड़ाई में तो असंख्याता योजन चौड़ा है। आठ सौ योजन पर सूर्य मण्डल है वह ४. योजन लम्बा-चौड़ा (एक योजन में ३३ योजन कम है) तथा २० योजन मोटा है। सूर्य विमान को १६००० देव चारों दिशाओं में हाथी, बैल, घोडा, सिंह का वैक्रिय रूप धारण करके उठाते हैं।
- आगमों में सूर्य विमान को भी सूर्य मंडल के नाम से बताया है। विमान को मंडल मानकर सूर्य के गति क्षेत्र को भी उपचार से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में मंडल बताया है। सूर्य मंडल आदि की लम्बाई-चौडाई-मोटाई का वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के सातवें वक्षस्कार में बताया गया है।
सूर्य विमान से ८० योजन ऊपर जाने पर चन्द्र विमान आता है। वह ५६ योजन लम्बाचौड़ा और २८. योजन मोटा है। चन्द्र विमान को भी १६००० देव उठाते हैं। वे देव गतिरतिक व गति-प्रिय हैं इसलिये वे निरंतर गति करते रहते हैं। ८८४ योजन पर नक्षत्र विमान आता है। ८८८ योजन पर बुध का विमान आता है। ८९१ योजन पर शुक्र और ८९४ पर
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