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समवायांग सूत्र
आचार के मुख्य रूप से पांच भेद किये गये हैं । यथा ज्ञानाचार (श्रुतज्ञान विषयक आचार) इसके आठ भेद किये गये हैं । यथा काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नव, व्यञ्जन, अर्थ और तदुभय। इसी प्रकार दर्शनाचार के भी आठ भेद हैं - १. निःशंकित २. नि:कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढदृष्टि ५. उपबृंहा ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य और ८ प्रभावना । चारित्राचार के भी आठ भेद हैं - ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान भण्डमात्रनिक्षेपणा समिति, उच्चारप्रस्रवण खेल सिंघाण जल्ल परिस्थापनिका समिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति ।
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ज्ञान, दर्शन आदि में बाह्य और आभ्यन्तर वीर्य (आत्म शक्ति) को लगाना वीर्याचार है। प्रतिपत्ति का अर्थ है - परमत के पदार्थों का बोध करना अथवा भिक्षु पडिमा आदि अभिग्रह विशेष |
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'वेढा' का अर्थ है वेष्टक अर्थात् आर्या छन्द, उपगीति छन्द आदि अनेक प्रकार के छंद विशेष । अनुष्टुप् छन्द में प्रत्येक चरण में आठ आठ अक्षर होते हैं। चार चरण में ३२ अक्षर होते हैं।
निर्युक्ति 'निश्चयेन- अर्थ प्रतिपादिकायुक्त योनिर्युक्तयः' सम्पूर्ण रूप से जिसमें शब्द का अर्थ कहा जाय उसे नियुक्ति कहते हैं ।
समुद्देशन- 'शिष्येण हीनादिलक्षणोपेते अधीते गुरोर्निवेदिते स्थिरपरिचितं कुर्विदमिति गुरुवचनविशेषः समुद्देशः । अर्थात् सब दोषों को टाल कर गुरु महाराज के पास पढ़ लेने पर और वापिस गुरुदेव को निवेदन कर देने पर गुरुदेव शिष्य को कहे कि - 'हे सौम्य - इस अर्थ को सम्यक् रूप से स्थिर परिचित कर ले अर्थात् हृदय में अच्छी तरह जमा ले।' इस प्रकार गुरु के कथन को समुद्देश (समुद्देशन) कहते हैं ।
इस प्रकार आचाराङ्ग को स्थापना की अपेक्षा से प्रथम अङ्ग कहा है अन्यथा रचना की अपेक्षा तो यह बारहवाँ अङ्ग है । क्योंकि रचना की अपेक्षा १४ पूर्वों की रचना सर्व प्रथम होती है। इसीलिये उनको पूर्व (पहला ) कहा है। इस आचाराङ्ग सूत्र में १८००० पद हैं। (पदों की संख्या जोड़ने से ) 'यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं ' जिससे अर्थ की प्राप्ति हो उसे पद कहते हैं। व्याकरण में तो 'विभत्यन्तं पदं' अर्थात् जिसके अन्त में विभक्ति लगी हुई हो, उसे पद कहते हैं। यह १८००० पदों की जो संख्या बताई गई है। वह नव ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्ध की संख्या समझनी चाहिए। क्योंकि कहा है
"विचित्रार्थबद्धानि च सूत्राणि, गुरुपदेशस्तेषामर्थोऽवसेय इति"
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