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समवाय ७२
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धणुव्वेयं, हिरण्णपागं सुवण्णपागं मणिपागं धाउपागं, बाहुजुद्धं दंडजुद्धं मुट्ठिजुद्धं अड्डिजुद्धं जुद्धं णिजुद्धं जुद्धाइजुद्धं, सुत्त खेडं णालिया खेडं वट्ट खेडं धम्म खेडं चम्म खेडं, पत्त छजं कडग छेजं, सजीवं णिज्जीवं, सउण रुयं। सम्मुच्छिम खहयरपंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं उक्कोसेणं बावत्तरि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता।७२॥
कठिन शब्दार्थ - बावत्तरिं - बहत्तर, सव्वाउयं - सर्वायुष्य-सम्पूर्ण आयु, अग्भिंतर पुक्खरद्धे - आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में, सरगयं - स्वर पहचानने की विद्या, जूयं - द्युत, जणवायं - जनवाद, पोक्खच्चं-पोरवच्चं - नगर की रक्षा करने की विद्या, पहेलियं - प्रहेलिका-गूढार्थ वाली कविता बनाने की विद्या, गाहं - गाथा बनाने की कला, सिलोगं - श्लोक बनाने की कला, गंधजुत्तं - गंध युक्ति-गन्ध बनाने की कला, मदसित्थं - मधुसिक्थ. मधु आदि बनाने की कला, तरुणी पडिकम्मं - तरुणी प्रतिक्रम - स्त्री को शिक्षण देने की कला, मिंढयलक्खणं - मेंढे के लक्षण जानने की कला, सोभागकरं- सौभाग्य के लक्षणों को जानना, सभासं - सभा में बोलने की कला, पडिचारं - प्रतिचार-आगमन की कला, खंधावार णिवेसं - स्कन्धावार निवेश अर्थात् सेना को ठहराने की कला, हिरण्णपागं - हिरण्यपाक-चांदी का पाक-भस्म बनाने की कला, चम्मखेडं - चर्म को प्रेरित करने की कला, सउणरुयं - शकुन रुत-पक्षियों के स्वर जानने की कला ।
- भावार्थ - सुवर्णकुमारों के बहत्तर लाख भवन कहे गये हैं। बहत्तर हजार नागकुमार देव लवण समुद्र की बाहरी वेला अर्थात् धातकीखण्ड की तरफ की वेला को यानी पानी की धारा को रोकते हैं। श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बहत्तर वर्ष की सम्पूर्ण आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध यावत् सब दु:खों से मुक्त हुए। आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में बहत्तर चन्द्रमा प्रकाशित हुए थे, प्रकाशित होते हैं और प्रकाशित होवेंगे। इसी प्रकार बाह्य अर्द्धपुष्करवर द्वीप में बहत्तर सूर्य तपे थे, तपते हैं और तपेंगे। प्रत्येक चक्रवर्ती राजा के बहत्तर हजार नगर होते हैं। बहत्तर कलाएं कही गई हैं यथा - १. लेख-अठारह देश की भाषाएं लिखने का ज्ञान, २. गणितसंख्या का ज्ञान, ३. रूप्य-चित्र बनाने की कला, ४. नाट्य-बत्तीस प्रकार के नाटक करने की कला, ५. गीत-गाने की कला, ६. वादिंत्र-बाजा बजाने की कला, ७. स्वर-स्वर पहचानने की विद्या, ८. पुष्कर विद्या, ९. गायन के साथ ताली बजाने की विद्या, १०. दयुत-जुआ खेलने की विद्या, ११. जन वाद-लोगों से बातचीत करने की विद्या, १२. नगर की रक्षा करने की
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