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समवाय ७९
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अन्तर कहा गया है अर्थात् छठी नरक का पृथ्वी पिण्ड एक लाख सोलह हजार योजन का है, उसका मध्यभाग ५८ हजार योजन का होता है। पृथ्वी पिण्ड के नीचे २१ हजार योजन मोटी-जाड़ी घनोदधि है, यह सब मिला कर ७९ हजार योजन होता है। इस जम्बूद्वीप की जगती के विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार द्वार हैं, उनमें से प्रत्येक द्वार के बीच में ७९ हजार योजन से कुछ अधिक अन्तर कहा गया है ॥ ७९ ॥
विवेचन - इस विषय में टीकाकार कहते हैं कि - सातों नरकों में घनोदधि बीस बीस हजार योजन की कही गई है किन्तु इस सूत्र के अभिप्राय से छठी नरक की घनोदधि २१ हजार योजन की होती है। किन्तु यह बात आगामानुसार नहीं है। दूसरी बात यह है कि ईषत्प्रागभारा पृथ्वी को मिला कर ८ पृथ्वियाँ कही गई हैं। इसलिए ईषत्प्रागभारा को पहली पृथ्वी गिनने से पांचवीं धूमप्रभा नरक का नम्बर छठा , आता है। इसलिए यह सूत्र पांचवीं नरक की अपेक्षा समझना चाहिए जिससे संगति ठीक बैठ जाती है क्योंकि पांचवीं नरक का पिण्ड १ लाख १८ हजार योजन का है, उसका मध्य भाग ५९ हजार योजन का होता है।
और २० हजार योजन का घनोदधि है, यह सब मिला कर ७९ हजार योजन का हो जाता है। संस्कृत टीकाकार ने यह भी संभावना व्यक्त की है कि - 'बहु' शब्द से १००० अधिक लेना चाहिये। इससे छठी पृथ्वी का बहु मध्य देश भाग ५९००० योजन (५८००० मध्य भाग और १००० बहु-अधिक दोनों को मिलाकर) आ जाता है और २० हजार घनोदधि को मिलाने से ७९००० योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। तत्त्व केवली गम्य ।
जम्बूद्वीप के चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं। जम्बूद्वीप की परिधि (तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस) ३१६२२७ योजन ३ कोस १२८ धनुष १३॥ अङ्गल से कुछ अधिक है। प्रत्येक द्वार की चौड़ाई चार चार योजन है। इस प्रकार चारों द्वारों की चौड़ाई १६ योजन होती है। इन सोलह को उपरोक्त परिधि के परिमाण में से घटा देने पर और शेष में चार का भाग देने पर एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कुछ अधिक ७९ हजार योजन सिद्ध हो जाता है।
- आगम में पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी आदि अनेक प्रकार के क्रम बताए हैं। जिससे ईषत्प्रागभारा अपेक्षा से पहली एवं आठवीं दोनों हो सकती है। समवायांग में टीकाकार ने ईषत्प्रागभारा को प्रथम पृथ्वी मानकर पांचवीं नरक पृथ्वी को छठी पृथ्वी मान कर संगति बिठाई है। परम्परा एवं धारणा से इसी प्रकार संगति समझी जाती है। .
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