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समवायांग सूत्र
· वन के पूर्व के चरमान्त से पश्चिम के चरमान्त तक ९९०० योजन का अन्तर कहा गया है। इसी प्रकार नन्दन वन के दक्षिण के चरमान्त से उत्तर के चरमान्त तक ९९०० योजन का अन्तर कहा गया है। उत्तर दिशा में सूर्य का प्रथम मण्डल ९९ हजार सातिरेक - कुछ अधिक योजन लम्बा चौड़ा कहा गया है अर्थात् ९९६४० योजन लम्बा चौड़ा कहा गया है। सूर्य का दूसरा मण्डल ९९ हजार साधिक - कुछ अधिक योजन अर्थात् ९९६४५ योजन लम्बा चौड़ा कहा गया है। सूर्य का तीसरा मण्डल ९९ हजार साधिक - कुछ अधिक अर्थात् ९९६५१ . योजन लम्बा चौड़ा कहा गया है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक के अञ्जन काण्ड के नीचे के चरमान्त से वाणव्यन्तर देवों के क्रीड़ा स्थान के ऊपर के चरमान्त तक ९९०० योजन का .. अन्तर कहा गया है ॥ ९९ ॥
विवेचन - मेरु पर्वत भूतल पर दश हजार योजन विस्तार वाला है और पांच सौ योजन की ऊंचाई पर अवस्थित नन्दनवन के स्थान पर नौ हजार नौ सौ चौपन योजन तथा एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग प्रमाण ( ९९५४ ६.) मेरु का बाह्य विस्तार है और भीतरी विस्तार उन्यासी सौ चौपन योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग प्रमाण है ( ७९५४ ६.)। पांच सौ योजन नन्दनवन की चौड़ाई है। इस प्रकार मेरु का आभ्यन्तर विस्तार और दोनों और के नन्दनवन का पांच-पांच सौ योजन का विस्तार ये सब मिलाकर ( ७९५४ ३, ५०० + ५०० - ८९५४ . ) प्रायः सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है।
सूर्य जिस आकाश-मार्ग से मेरु के चारों ओर परिभ्रमण करता है उसे सूर्य-मण्डल कहते , हैं। जब वह उत्तर दिशा के सबसे पहले मण्डल पर परिभ्रमण करता है, तब उस मण्डल की गोलाकार रूप में लम्बाई निन्यानवें हजार छह सौ चालीस योजन (९९६४०) होती है। जब सूर्य दूसरे मण्डल पर परिभ्रमण करता है तब उसकी लम्बाई निन्यानवें हजार छह सौ पैंतालीस योजन और एक योजन के. इकसठ भागों में से पैंतीस भाग प्रमाण ( ९९६४५.३५ ) होती है। प्रथम मण्डल से इस दूसरे मण्डल की पांच योजन और पैंतीस भाग इकसठ वृद्धि का कारण यह है कि एक मण्डल से दूसरे मण्डल का अन्तर दो दो योजन का है तथा सूर्य के विमान का विष्कम्भ एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग प्रमाण है। इसे (२४८)
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