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समवाय ९८
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है। उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गयी है। चौबीस अङ्गल का एक हाथ होता है और चार हाथ का एक दण्ड होता है। इस प्रकार (२४४४-९६) एक दण्ड छयानवें अङ्गुल प्रमाण होता है। इसी प्रकार धनुष आदि भी छयानवें-छयानवें अङ्गल प्रमाण होते हैं।
सत्तानवां समवाय मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चत्थिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स णं आवास पव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरमंते एस णं सत्ताणउइं जोयणसहस्साइ अबाहाए अंतरे पण्णत्ते एवं चउद्दिसिं वि। अटुण्हं कम्म पयडीणं सत्ताणउई उत्तरपयडीओ पण्णत्ताओ। हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाई सत्ताणउई वाससयाई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइए ॥ ९७ ॥
- कठिन शब्दार्थ , अट्टण्हं कम्मपयडीणं - आठ कर्मों की प्रकृतियाँ, सत्ताणउई - ९७, उत्तरपयडीओ - उत्तर प्रकृतियाँ । .
भावार्थ - मेरु पर्वत के पश्चिम के चरमान्त से गोस्थूभ नामक आवास पर्वत के पश्चिम चरमान्त तक ९७ हजार योजन अन्तर कहा गया है। इसी तरह चारों दिशाओं में अर्थात् दक्षिण में दगभास, पश्चिम में शंख और उत्तर में दगसीम पर्वतों का अन्तर जानना चाहिए। आठ कर्मों की ९७ उत्तर प्रकृतियाँ कही गई हैं अर्थात् ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयु की ४, नाम कर्म की ४२, गोत्र कर्म की २
और अन्सराय कर्म की ५ ये सब मिल कर ९७ हुई। हरिषेण नामक दसवां चक्रवर्ती राजा ९७०० वर्ष से कुछ कम गृहस्थवास में रह कर मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित हुए ॥ ९७ ॥ - विवेचन - इस अवसर्पिणी काल के १० वें चक्रवर्ती का नाम हरिषेण है। वह ९७०० वर्ष में कुछ कम गृहस्थ अवस्था में रहे इसके बाद चक्रवर्ती पद को छोड़ कर दीक्षा अंगीकार की। ३०० वर्ष से कुछ अधिक दीक्षा पर्याय का पालन कर इस प्रकार दस हजार वर्ष का सम्पूर्ण आयुष्य भोग कर सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हुए।
. अहानवा समवाय - णंदण वणस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ पंडुय वणस्स हेट्टिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। मंदरस्स णं पव्वयस्स
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