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समवाय६० .
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उनसठवां समवाय चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उऊ एगूणसट्टि राइंदियाइं राइंदियग्गेणं पण्णत्ता। संभवे णं अरहा एगूणसद्धिं पुव्वसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे जाव पव्वइए । मल्लिस्स णं अरहओ एगूणसटुिं ओहिणाणिसया होत्था ॥५९ ॥
कठिन शब्दार्थ - चंदस्स संवच्छरस्स - चन्द्र संवत्सर की, उऊ - ऋतु, अगारमाझेअगारमध्य-गृहस्थवास में, वसित्ता - रह कर, मुंडे जाव पव्वइए - मुण्डित यावत् प्रव्रजित हुए थे। ___भावार्थ - चन्द्रमा की गति को मान कर जो संवत्सर गिना जाता है, उसे चन्द्र संवत्सर कहते हैं, उस चन्द्र संवत्सर की प्रत्येक ऋतु (दो मास की एक ऋतु होती है) रात्रि दिवस की अपेक्षा उनसठ रात दिन की होती है। चौथे तीर्थङ्कर श्री सम्भवनाथ स्वामी उनसठ लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रह कर मुण्डित हुए थे, यावत् प्रव्रजित हुए थे। मल्लिनाथ भगवान् के . उनसठ सौ अवधिज्ञानी थे ॥ ५९ ॥ - विवेचन - ठाणाङ्ग सूत्र के पांचवें ठाणे में पांच प्रकार के संवत्सर बतलाये गये हैं। चन्द्रमा की गति को मान कर जो संवत्सर बतलाया जाता है उसे चन्द्र संवत्सर कहते हैं। इसके बारह महीने होते हैं और छह ऋतुएं होती हैं। एक ऋतु ५९ रात्रि दिन की होती है। एक रात दिन के ६० भागों में से ३२ भाग अधिक होती है यथा - ५.३२ । परन्तु यहाँ ऊपर के भाग को गौण कर दिया है।
। यहाँ पर संभवनाथ स्वामी का गृहस्थ पर्याय ५९ लाख पूर्व का बतलाया है। किन्तु आवश्यक सूत्र में ६५ लाख पूर्व और ४ पूर्वाङ्ग अधिक बताया है।
. साठवां समवाय एगमेगे णं मंडले सूरिए सट्ठिए सट्ठिए मुहुत्तेहिं संघाइए । लवणस्स णं समुदस्स सट्टि गांगसाहस्सीओ अग्गोदयं धारंति । विमले णं अरहा सट्टि धाइं उड् उच्चत्तेणं होत्था। बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स सर्द्धि सामाणिय साहस्सीओ पण्णत्ताओ। बंभस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सर्टि सामाणिय साहस्सीओ पण्णत्ताओ। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु सर्दैि विमाणावास सयसहस्सा पण्णत्ता ॥६० ॥
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