________________
समवायांग सूत्र
महालिका विमानप्रविभक्ति नामक कालिक सूत्र के पांचवें वर्ग में पैंतालीस उद्देशन काल कहे गये हैं ॥ ४५ ॥
विवेचन - अढाई द्वीप में चार वस्तुएं पैंतालीस लाख पैंतालीस लाख योजन की लम्बी चौड़ी कही गई है । यथा पहली नरक के प्रथम प्रतर (प्रस्तट) में गोल मध्यभागवर्ती नरकेन्द्र है जिसका नाम "सीमन्तक" है। सौधर्म और ईशान अर्थात् पहले और दूसरे देवलोक के पहले प्रतर में चारों दिशाओं में आवलिका प्रविष्ट विमानों का मध्यवर्ती गोल विमान केन्द्र उड्ड विमान तथा ईषत्प्राग्भारा (सिद्धि) पृथ्वी और समय क्षेत्र अर्थात् मनुष्य लोक । ये सब पैंतालीस - पैंतालीस लाख योजन लम्बे चौड़े कहे गये हैं। ये चारों दिशा और विदिशाओं में समान रूप से आये हुए हैं। थोकड़ा वाले इनको 'चार पेंताला' कहते हैं । इसका आशय भी यही है ।
१९६
-
जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तृत है तथा मन्दर (मेरु) पर्वत धरणीतल पर १०००० योजन विस्तृत है। एक लाख में से दस हजार योजन घटाने पर नव्वें हजार योजन शेष रहते हैं। उसके आधे पैंतालीस हजार योजन होते हैं । अतः मेरु पर्वत से चारों दिशाओं में लवण समुद्र की वेदिका ४५ हजार योजन के अन्तराल पर पाई जाती है ।
चन्द्रमा का ३० मुहुर्त भोग्य क्षेत्र समक्षेत्र कहलाता है। उसके ड्योढे ४५ मुहूर्त्त भोग्य क्षेत्र को द्वयर्द्ध (द्वि अर्ध) क्षेत्र भी कहते हैं ।
छियालीसवां समवाय
दिडिवायस्स णं छायालीसं माउयापया पण्णत्ता । बंभीए णं लिवीए छायालीसं मायक्खरा पण्णत्ता । पभंजणस्स णं वाउकुमारिंदस्स छायालीसं भवणावाससयसहस्सा
पण्णत्ता ॥ ४६ ॥
कठिन शब्दार्थ - छायालीसं - छियालीस, माउयापया मातृका पद, माउयक्खरामातृकाक्षर, वाउकुमारिंदस्स पभंजणस्स - वायु कुमार देवों के इन्द्र प्रभञ्जन के ।
भावार्थ - दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्ग के छियालीस मातृकापद कहे गये हैं । ब्राह्मी लिपि के छयालीस मातृकाक्षर कहे गये हैं ।
वासुकुमार देवों के इन्द्र प्रभञ्जन के छियालीस लाख भवन कहे गये हैं ॥ ४६ ॥ विवेचन - ब्राह्मी लिपि के ४६ मातृका अक्षर कहे गये हैं । यथा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
-
www.jainelibrary.org