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समवाय ४७
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अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः (ऋ ऋल लु) ये चार अक्षर नहीं गिने गये हैं। . व्यञ्जन चौतीस हैं - पच्चीस स्पर्श, चार अन्तःस्थ, चार उष्म और क्ष ।
क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न प फ ब भ म, य र ल व श ष स ह, क्ष ।
"कादयोमावसाना स्पर्शाः" अर्थात् 'क' से लेकर 'म' तक इन पच्चीस अक्षरों की स्पर्श संज्ञा है, य र ल व ये चार अन्तःस्थ हैं। श ष स ह इनको उष्म कहा है। 'क्ष' अक्षर है।
संस्कृत भाषा में तो बावन अक्षर कहे गये हैं - और उनको भी मातृका अक्षर कहा गया है। यथा -
व्यञ्जनानि त्रयस्त्रिंशत् स्वराश्चैव चतुर्दश। अनुस्वारो विसर्गश्च जिह्वामूलीय एव च॥ उपध्मानीय विज्ञेयः प्लुतश्च परिकीर्तितः। एवं वर्णा द्विपञ्चांशमातृकायामुदाहृताः॥
क और ख के पहले आधीविसर्ग के समान जो चिह्न होता है उसे जिह्वामूलीय कहते हैं। यथा -* क ख । इसी तरह प और फ से पहले आने वाले ऐसे चिह्न को उपध्मानीय कहते हैं। यथा - ४ प फ ___ दृष्टिवाद के ४६ मातृका पद कहे गये हैं। अङ्ग सूत्रों में दृष्टिवाद बारहवाँ अङ्ग सूत्र है। इसके ४६ मातृका पद हैं। मातृका पद का अर्थ किया है - 'उत्पादविगमधौव्यलक्षणानि'। प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा ध्रुव है। पर्याय की अपेक्षा पुराना पर्याय नष्ट होता है और नया पर्याय उत्पन्न होता है। जैसा कि कहा है - . 'उप्पण्णे इ.वा, विगमे इवा, धुवे इ वा'
दृष्टिवाद में सिद्ध श्रेणि आदि विषय भेद से किसी अपेक्षा ४६ भेद होते हैं। ऐसी संभावना की जाती है।
सैंतालीसवां समवाय जया णं सूरिए सव्वब्भिंतरमंडलं उवसंकमित्ता णं चार चरइ तया णं इहगयस्स मणुंसस्स सत्तचत्तालीसं जोयण सहस्सेहिं दोहि य तेवट्टि जोयणसएहिं एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छइ। थेरेणं अग्गिभूई सत्तचत्तालीसं वासाई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ४७ ॥
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