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समवायांग सूत्र
उद्देसण काला पण्णत्ता। कत्तिय बहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततीसंगुलियं पोरिसी छायं णिव्वत्तइत्ता णं चारं चरइ ॥ ३७ ॥
कठिन शब्दार्थ - सत्ततीसं - सैंतीस, हेमवय हिरण्णवयाओ - हैमवय हिरण्णवंय क्षेत्रों की, सत्ततीसं जोयणसहस्साई छच्च चउसत्तरे जोयणसए सोलसयएगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसूणाओ - ३७६७४ योजन और १ योजन के १९ भागों में से १६ भाग से कुछ न्यून (कम), रायहाणीसु - राजधानियों में, पागारा - प्राकार-कोट, खुड्डियाए. विमाणपविभत्तीए - क्षुद्र विमान प्रविभक्ति नामक कालिक सूत्र के।
भावार्थ - सतरहवें तीर्थङ्कर श्री कुन्थुनाथ स्वामी के सैंतीस गण और सैंतीस गणधर थे। हैमवय हिरण्णवय क्षेत्रों की जीवाएँ ३७६७४ योजन और एक योजन के १९ भागों में से १६ भाग से कुछ न्यून (कम) लम्बी कही गई हैं।
विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित इन सब जम्बूद्वीप के पूर्वादि द्वारों की राजधानियों के कोट सैंतीस सैंतीस योजन के ऊँचे कहे गये हैं। क्षुद्र विमान प्रविभक्ति नामक कालिक सूत्र के पहले वर्ग में सैंतीस उद्देशन काल कहे गये हैं। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन पौरिसी की छाया सैंतीस अङ्गल की करके सूर्य परिभ्रमण करता है अर्थात् उस दिन जब सैंतीस अंगुल प्रमाण छाया आवे तब पोरिसी होती है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ३७ ॥
विवेचन - यहाँ पर सतरहवें तीर्थङ्कर श्री कुन्थुनाथ स्वामी के ३७ गणधर और ३७ गण बतलाये हैं। किन्तु आवश्यक सूत्र में ३३ गणधर और ३३ गण बतलाये हैं। यह मतान्तर समझना चाहिये । आगम का मूल पाठ विशेष महत्त्व रखता है।
जम्बूद्वीप के चारों दिशाओं में चार द्वार (दरवाजे) बतलाये गये हैं - विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित । यहाँ से असंख्यात द्वीप समुद्र उल्लंघने के बाद असंख्यातवाँ द्वीप जम्बूद्वीप आता है। उसमें इन द्वारों के देवों की राजधानियाँ हैं। इन द्वारों के अधिपति देव और इनकी राजधानियों के नाम भी ये ही हैं। यथा - विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित ।। ___धनुष के दोनों किनारों को एक करने की दृष्टि से जो रस्सी बांधी जाती है उसको 'जीवा' कहते हैं। हेमवय (हैमवत) हेरण्यवय (हैरण्यवत) दोनों युगलिक क्षेत्र हैं। ये दोनों गोलाई में आये हुए हैं। इसलिये इनकी जीवा ३७६७४ १६. योजन कही गई है।
'क्षुद्रिका विमान प्रविभक्ति' नामक कालिक सूत्र अभी उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार आगे भी जहाँ जहाँ 'विमानप्रविभक्ति' का वर्णन आवे, वहाँ ऐसा ही समझ लेना चाहिये कि वह उपलब्ध नहीं है।
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