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समवायांग सूत्र
शिष्य को आशातना लगती है। ३०. जिस सभा में रत्नाकर धर्मकथा कह रहे हों, वह सभा उठी न हो, सभा छिन्न-भिन्न न हुई हो यानी लोग गये न हों, सभा छिन्न न हुई हो यानी लोग बिखरे न हों, सभा बिखरी न हो, उसी सभा में यदि शिष्य रत्नाकर की लघुता और अपना गौरव बताने के लिए उसी कथा को दो बार तीन बार विस्तार पूर्वक कहे तो शिष्य को आशातना लगती है। ३१. शिष्य के पैर से यदि रत्नाकर की शय्या संस्तारक बिछौने का स्पर्श हो जाय और शिष्य हाथ जोड़ कर उस अपराध की क्षमा मांगे बिना तथा उस आसन को वापिस ठीक किये बिना ही चला जाय तो शिष्य को आशातना लगती है। ३२. शिष्य रत्नाकर के शय्या संस्तारक पर खड़ा रहे, बैठे अथवा सोवे तो शिष्य को आशातना लगती है। ३३. शिष्य यदि रत्नाकर से ऊंचे आसन पर अथवा बराबर आसन पर खड़ा रहे, बैठे अथवा सोवे तो शिष्य को आशातना लगती है। ये तेतीस आशातनाएं हैं। शिष्य को इन आशातनाओं का त्याग करना चाहिए अर्थात् उन आशातनाओं से बचना चाहिये। असुरों के राजा असुरों के इन्द्र चमरेन्द्र की चमरचञ्चा राजधानी के प्रत्येक द्वार पर तेतीस तेतीस मझले महल अथवा नगर के आकार वाले उत्तम स्थान कहे गये हैं। महाविदेह क्षेत्र तेतीस हजार योजन से कुछ अधिक विस्तार वाला कहा गया है। जब सूर्य बाहर के तीसरे मण्डल में आकर भ्रमण करता है तब इस भरत क्षेत्र में रहे हुए पुरुष को कुछ विशेष न्यून (कम) तेतीस हजार योजन की दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति तेतीस पल्योपम की कही गई है। तमस्तमा नामक सातवीं नरक में काल, महाकाल, रोरुक (रौरव) और महारोरुक (महारौरव) इन चार नरकावासों में नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है। सातवीं नरक में अप्रतिष्ठान नरकावास में नैरयिकों की अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम की कही गई है। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तरविमानों में देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है। जो देव सर्वार्थ सिद्ध महाविमान में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उन देवों की अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है। वे देव तेतीस पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को तेतीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तेतीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दु:खों का अन्त करेंगे ॥ ३३ ॥
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