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समवाय ३३
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आशातना किसे कहते हैं ?
विवेचन - प्रश्न उत्तर - आशातना शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है
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सामस्त्येन शात्यन्ते अपध्वंस्यन्ते ज्ञानादिगुणाः याभिः ताः आशातनाः । अर्थ - जिनका सेवन करने से ज्ञानादि गुण नष्ट हो जाय उन्हें आशातना कहते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शनादि गुणों का घात करने वाली अविनय की क्रियाओं को आशातना कहते हैं । -
" एवं धम्मस्स विणओ मूलं " कह कर शास्त्रकारों ने विनय का महत्त्व बतलाते हुए उसकी अनिवार्य आवश्यकता भी बतला दी है। धर्म का प्रासाद (महल) विनय की नींव पर खड़ा होता है इसीलिये विनय रहित क्रियाओं को आशातना (सम्यग्दर्शनादि गुणों का नाश करने वाली ) कहना ठीक ही है। वे आशातनाएँ तेतीस प्रकार की हैं। शैक्ष (नवदीक्षित) और छोटी दीक्षा वाले साधु-साध्वी को रत्नाधिक (दीक्षा में बड़े साधु सध्वियों ) के साथ रहते हुए रत्नाधिक के प्रति विनय और बहुमान रख कर इन आशातनाओं का परिहार करना चाहिये जिससे विनय और धर्म की यथार्थ आराधना होती है और मुमुक्षु अपने मुक्ति प्राप्ति रूप ध्येय के अधिकाधिक समीप पहुँचता है। इसका फल बतलाते हुए उत्तराध्ययन सूत्र के ३१ वें अध्ययन में बतलाया है।
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'से ण अच्छइ मंडले'
अर्थात् - वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता है अपितु शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। 'आवश्यक' सूत्र में दूसरे प्रकार से भी तेतीस आशातनाएं बतलाई हैं । यथा 'अरिहंताणं आसायणाए, सिद्धाणं आसायणाए जाव सज्झाइए ण सज्झाइयं' इन आशातनाओं का स्वरूप हरिभद्रीय आवश्यक सूत्र अथवा श्रमण सूत्र से जानना चाहिये ।
सूर्य के १८४ मण्डल कहे गये हैं। उनमें से जब सूर्य बाहर के तीसरे मण्डल में परिभ्रमण करता है तब भरत क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य को तेतीस हजार योजन से कुछ कम दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। इस गणित का हिसाब जम्बूद्वीप पण्णत्ति सूत्र में बतलाया गया है।
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चार गति के जीवों की स्थिति तीन प्रकार की बतलाई गई है- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जैसे कि - नरक के नैरयिकों की और देवलोक के देवों की जघन्य स्थिति १०००० वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की बतलाई गयी है । १०००० वर्ष से एक समय अधिक से लेकर तेतीस सागरोपम में एक समय कम तक सब मध्यम स्थिति होती है । किन्तु कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँ जघन्य और मध्यम स्थिति एवं उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती किन्तु एक ही प्रकार
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