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समवायांग सूत्र
२. पहले कभी नहीं देखे हुए यथातथ्य (वास्तविक) शुभ स्वप्न के देखने से चित्त में समाधि होती है। ३. जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ ऐसे संज्ञी ज्ञान यानी जाति स्मरण ज्ञान के उत्पन्न होने से जीव अपने पूर्वभव को देख कर चित्त में समाधि होती है और वैराग्य को प्राप्त होता है। ४. जो पहले कभी नहीं हुआ ऐसे देव का दर्शन होने पर उसकी दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति-कान्ति और दिव्य प्रभाव को देख कर चित्त में समाधि होती है और धर्म में श्रद्धा दृढ़ होती है। ५. जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ ऐसे अवधिज्ञान के उत्पन्न होने से लोक के स्वरूप को जानने से चित्त में समाधि होती है। ६. जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ ऐसे. अवधि दर्शन के उत्पन्न होने से लोक को देखने से चित्त में समाधि उत्पन्न होती है। ७. जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ ऐसा मन:पर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है जिससे अढाई द्वीप के अन्दर रहे हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानता है जिससे चित्त में समाधि होती है। ८. जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ ऐसा केवलज्ञान उत्पन्न होता है जिससे सम्पूर्ण लोक को जानता है जिससे चित्त में समाधि उत्पन्न होती है। ९. जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ ऐसा केवलदर्शन उत्पन्न होता है जिससे सम्पूर्ण लोक को देखता है जिससे चित्त में समाधि होती है। १०. केवलिमरण अर्थात् केवल ज्ञान केवल दर्शन सहित मृत्यु होने से सब दुःख तथा जन्म मरण के बन्धन छूट जाने से चित्त में समाधि होती है। मेरु पर्वत मूल में दस हजार योजन का चौड़ा कहा गया है। बाईसवें तीर्थङ्कर भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण वासुदेव और राम बलदेव इन तीनों के शरीर दस धनुष ऊंचे थे। दस नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गये हैं अर्थात् इन नक्षत्रों के उदय होने पर विद्यारम्भ या विद्या सम्बन्धी कोई काम शुरू करने से ज्ञान की वृद्धि होती हैं। वे ये हैं- १. मृगशीर्ष, २. आर्द्रा ३. पुष्य ४-५-६ पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वभाद्रपदा, पूर्वाषाढ़ा, ७-८ मूला, अश्लेषा ९. हस्त और १०. चित्रा, ये दस नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले हैं। अकर्म भूमि में होने वाले युगलिया मनुष्यों के लिए दस प्रकार के वृक्ष उपभोग में आते हैं वे इस प्रकार हैं - १. मत्तङ्गा - शरीर के लिए पौष्टिक रस देने वाले, २. भृताङ्गा - बर्तन का काम देने वाले, ३. त्रुटिताङ्गा - वादिंत्र-बाजे का काम देने वाले, ४. दीपाङ्गा - दीपक का काम देने वाले, ५. ज्योतिरङ्गा - सूर्य के समान प्रकाश देने वाले तथा अग्नि का काम देने वाले, ६. चित्राङ्गा - विविध प्रकार के फूल देने वाले, ७. चित्ररसा - विविध प्रकार का भोजन देने वाले ८. मण्यङ्गा - आभूषण देने वाले ९. गेहाकारा - मकान की तरह आश्रय देने वाले १०. अणियणा (अनग्ना) - वस्त्र का काम
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