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समवायांग सूत्र
६-१०. पांच इन्द्रियों को वश में नहीं रखना। ११-१४. क्रोध, मान, माया और लोभ में प्रवृत्ति करना। १५-१७. मन, वचन और काया से अशुभ प्रवृत्ति करना।
लवण समुद्र के ऊपरी सतह से १६ हजार योजन ऊंचा उगमाला (उदक माला) है। पर्व दिनों में आधा योजन पानी की वेल ऊंची चढ़ जाती है। ४२ हजार नागराज देव लवण समुद्र की आभ्यन्तर वेला को और ७२ हजार नागराज देव बाहरी वेला को तथा ६० हजार देव ऊपर उठती हुई वेला को दबाकर रखते हैं। ताकि वह वेला जम्बूद्वीप और धातकी खण्ड द्वीप को पानी से आप्लावित न कर दे अर्थात् पानी से एकमेक न कर दे । * लवण समुद्र का पानी सर्वाग्र रूप से १७ हजार योजन ऊपर गया है और मानुष्योत्तर पर्वत तथा वेलन्धर, अणुवेलन्धर नागराज देवों के पर्वत भी १७२१ योजन ऊंचे हैं। जंघाचारण
और विद्याचारणों की तिर्की गति १७ हजार योजन से कुछ अधिक ऊपर जाने पर तिर्थी होती है। वे रुचक द्वीप आदि द्वीपों में जाने के लिये तिर्थी गति करते हैं। इस जम्बूद्वीप से . असंख्यात द्वीप समुद्र आगे जाने पर अरुणोदय समुद्र में दक्षिण दिशा से ४२ हजार योजन : आगे जाने पर चमरेन्द्र का तिगिछि कूट उत्पात पर्वत की ऊचाई १७२१ योजन है। इसी प्रकार उत्तर दिशा में बलीन्द्र का रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत है। मनुष्य क्षेत्र में आने के लिये चमरेन्द्र और बलीन्द्र इन उत्पात पर्वतों पर आकर उछलते हैं।
सतरह प्रकार का मरण बतलाया गया है। जीव इस भव का आयुष्य समाप्त कर जब अगले दूसरे भव में जाता है तभी से उसका आवीचि मरण शुरू हो जाता है। यथा - जैसे कोई जीव १०० वर्ष का आयुष्य बांधकर मृत्यु को प्राप्त कर अगले भव के लिये रवाना हुआ तभी से जो जो क्षण बीतता जाता है वह १०० वर्ष में से कम होता जाता है। जैसा कि कहा है - ...
यामेव रात्रिं प्रथमामुपैति, गर्भे वसत्यै नरवीर ! लोकः । ततः प्रभृत्यस्खलितप्रयाणः, स प्रत्यहं मृत्युसमीपमेति ॥
आसन्नतरतामेति, मृत्युर्जन्तोदिने-दिने। 'आघातं नीयमानस्य, वध्यस्येव पदे-पदे ॥
अर्थात् जीव जब गर्भ में आता है और जो जो क्षण बीतता जाता है उतना आयुष्य कम होता जाता है और वह मृत्यु के नजदीक पहुँचता जाता है। जैसे किसी अपराधी को फांसी की सजा दी गयी उसको पकड़ कर सिपाही फांसी के स्थान पर ले जाते हैं। वह अपराधी ज्यों ज्यों
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