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समवाय २४
है । गङ्गा और सिन्धु ये दो महा नदियों का प्रवाह यानी जहाँ से निकलती हैं वहाँ चौबीस कोस से कुछ अधिक विस्तार है। ऐरावत क्षेत्र में बहने वाली रक्ता और रक्तवती महानदियों का प्रवाह यानी जहाँ से निकलती है वहाँ चौबीस कोस से कुछ अधिक विस्तार कहा गया है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति चौबीस पल्योपम की कही गई है। महातमः प्रभा नामक सातवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति चौबीस सागरोपम की कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति चौबीस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति चौबीस पल्योपम की कही गई है। अधस्तन उपरितन अर्थात् तीसरे ग्रैवेयक वाले देवों की जघन्य स्थिति चौबीस सागरोपम की कही गई है। जो देव अधस्तन मध्यम अर्थात् दूसरे ग्रैवेयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौबीस सागरोपम की कही गई है। वे देव चौबीस पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उनं देवों को चौबीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव सिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो चौबीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब 'दुःखों का अन्त करेंगे ॥ २४ ॥
: विवेचन - यहाँ समवायाङ्ग सूत्र में तथा भगवती सूत्र के १२ वें शतक के नौंवे उद्देशक मैं तीर्थङ्कर भगवान् के लिए "देवाधिदेव" शब्द का प्रयोग किया टीकाकार ने इस प्रकार किया है -
। इस शब्द का अर्थ
वर्षधर पर्वतों की जीवा का परिमाण २४९३२ -
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“देवानाम् - इन्द्रादीनामधिका देवाः पूज्यत्वात् देवाधिदेवा इति" अर्थ - देवों के इन्द्रों से भी पूज्य होने के कारण तीर्थङ्कर भगवन्तों को देवाधिदेव कहते हैं । २. जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि गोल क्षेत्र हैं। उनके वर्षधर पर्वतों की सीधी और सरल सीमा को "जीवा" कहते हैं । तात्पर्य यह है कि धनुष के दोनों किनारों को बांध कर रखने वाली डोरी की तरह जो हो उसको जीवा कहते हैं । चूलहिमवान और शिखरी इन दो
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से कुछ विशेषाधिक है।
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दस भवनपति, आठ वाणव्यन्तर, पांच ज्योतिषी, एक कल्पोपन्न वैमानिक, ये २४ स्थान इन्द्र सहित हैं। इसीलिये पुरोहित सहित भी हैं। नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान ये १४ देवस्थान इन्द्र और पुरोहित से रहित हैं। क्योंकि ये सब अहमिन्द्र कहलाते हैं । इसलिये इनमें छोटे बड़ों का भेद नहीं है ।
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