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समवायांग सूत्र
श्री पार्श्वनाथ भगवान् तीस वर्ष तक गृहस्थवास में रह कर फिर गृहस्थवास छोड़ कर अनगार - साधु बने थे। चौबीसवें तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी तीस वर्ष तक गृहस्थवास में रह कर फिर गृहस्थवास छोड़ कर अनगार - साधु बने थे। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति तीस पल्योपम की कही गई है । तमस्तमा नामक सातवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति तीस सागरोपम की कही गई है। असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति तीस पल्योपम की कही गई है। उपरिम उपरिम नामक नववें ग्रैवेयक विमान में देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम की कही गई है। जो देव उपरिम मध्यम नामक आठवें ग्रैवयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम की कही गई है। वे देव तीस पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को तीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो तीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ३० ॥
विवेचन - सामान्यतः मोहनीय शब्द से आठों कर्म लिये जाते हैं और विशेष रूप से आठों कर्मों में से चौथा कर्म मोहनीय लिया जाता है। वैसे आठों कर्मों के और मोहनीय कर्म बन्ध के अनेक कारण हैं लेकिन शास्त्रकारों ने विशेष रूप से मोहनीय कर्म बन्ध के तीस स्थान गिनाये हैं । इन्हें सेवन करने वालों के अध्यवसाय अत्यन्त तीव्र एवं क्रूर होते हैं। जिन पर इनका प्रयोग किया जाता है उनके परिणाम भी तीव्र वेदनादि कारणों से अत्यन्त संक्लिष्ट एवं महामोह उत्पन्न करने वाले हो जाते हैं इस कारण इन स्थानों का कर्त्ता अपने कार्य के अनुरूप ही सैकड़ों भवों तक दुःख देने वाले महामोह रूप कर्म बांधता है।
मोहनीय कर्म आठ कर्मों का राजा है जैसा कि विनयचन्द चौबीसी के रचयिता प्रज्ञाचक्षु तत्त्ववेत्ता सुश्रावक श्री विनयचन्द जी कुम्भट (दहीकडा, जोधपुर) ने नववें भगवान् सुविधिनाथ की प्रार्थना करते हुए कहा है -
अष्ट कर्म नो राजवी हो, मोह प्रथम क्षय कीन ।
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शुद्ध समकित चारित्रनो हो, परम क्षायिक गुण लीन ॥ ३ ॥
मोहकर्म का क्षय होने से ही क्षायिक समकित की प्राप्ति होती है और क्षायिक समकित की प्राप्ति होने से क्षायिक चारित्र ( यथाख्यात चारित्र) की प्राप्ति होती है और फिर केवलज्ञान हो जाता है। कर्म क्षय का यही क्रम है - सबसे पहले मोहनीय कर्म क्षय होता है उसके बाद ज्ञानावरण दर्शनावरणीय और अन्तराय तो एक अन्तर्मुहूर्त में क्षय हो जाते हैं और केवलज्ञान
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