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समवाय ३०
प्रगट हो जाता है। आयुष्य आदि चार कर्म तो जली हुई रस्सी के समान हो जाते हैं आयुष्य कर्म का क्षय होने पर चारों कर्म ( वेदनीय, नाम, गोत्र, आयुष्य) एक साथ क्षय हो जाते हैं। इनके क्षय होते ही जीव सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर सिद्धि गति में विराजमान हो जाता है। इसी क्रम को बतलाते हुए दशाश्रुतस्कन्ध की पांचवीं दशा में इस प्रकार बतलाया है
ताड़ वृक्ष बहुत लम्बा होता है, उसके अग्रभाग पर सूई सरीखा तीखा उसी वृक्ष का अंश रूप सूई रूप होता है। उसको नष्ट कर देने से सारा ताड़ वृक्ष सूख जाता है । सेनापति के मारे जाने पर सेना भाग जाती है। अग्नि में ईंधन डालना बन्द करने से अग्नि स्वयं बूझ जाती है उसी प्रकार "एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिज्जे खयं गए" उपरोक्त दृष्टान्तों के अनुसार एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर सर्व कर्म क्षय हो जाते हैं। जो बीज जला दिये जाते हैं उन से फिर अंकुर पैदा नहीं होता । उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय होने पर भव (संसार) रूपी अंकुर पैदा नहीं होता है ।,
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दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः ।
कर्म बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ॥
अर्थ - जिस प्रकार बीज के सर्वथा जल जाने पर अंकुर पैदा नहीं होता है, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने पर भव रूपी अंकुर पैदा नहीं होता है अर्थात् जन्मान्तर नहीं होता है तथा जिस वृक्ष का मूल सूख गया है उसके ऊपर कितना ही पानी डाला जाय हरा भरा नहीं हो सकता इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय होने पर दूसरे कर्म भी नहीं बन्धते हैं । बल्कि इसी भव में सर्व कर्म क्षय हो जाते हैं। इसीलिये कवि विनयचन्दजी ने तेरहवें तीर्थङ्कर श्री विमलनाथ स्वामी की स्तुति करते हुए भव्य जीवों को प्रेरणा दी है
विमल जिनेश्वर सेविये, थारी बुध निर्मल हो जाय रे जीवा । विषय-विकार बिसार ने तू मोहनी करम खपाय रे जीवा ॥ विमल जिनेश्वर सेविये ॥ १ ॥
• महामोहनीय कर्म बन्ध के तीस स्थान बताये हैं - यहाँ 'महामोहनीय' शब्द का अर्थ मिथ्यात्व भी किया है। अठारह पापों में मिथ्यात्व सब पापों का जनक (बाप) है, राजा है, सर्व शिरोमणि है। जैसे राजा के रहते हुए सब प्रजा सुखचैन पूर्वक निर्भय रहती है । उसी प्रकार मिथ्यात्व रूपी राजा के रहते हुए सतरह पाप फलते-फूलते हैं और निर्भय रहते हैं । वे सोचते हैं कि हमारा राजा मिथ्यात्व मौजूद है इसलिये हमें कोई डर नहीं। हमारा कोई कुछ
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