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समवायांग सूत्र
यहाँ मतिज्ञान के २८ भेद बतलाये गये हैं। इन में अर्थावग्रह के छह भेद, ईहा के छह भेद, अवाय के छह भेद और धारणा के छह भेद । अर्थावग्रह से पहले जो अस्पष्ट अस्तित्व मात्र का ज्ञान होता है उसको व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। इसके चार भेद हैं यथा - श्रोत्रेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, घ्राणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह रसनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह। व्यञ्जनावग्रह का अर्थ है-इन्द्रिय के साथ पुद्गल का एकमेक हो जाना। व्यञ्जनावग्रह प्राप्यकारी इन्द्रियों में ही होता है। चक्षुइन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से उससे मात्र अर्थावग्रह होता है। असंख्यात समय के व्यंजनावग्रह के बाद एक समय का अर्थावग्रह होता है। चक्षु इन्द्रिय तथा मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। ___मतिज्ञान के उपरोक्त अट्ठाईस मूल भेद हैं। इन अट्ठाईस भेदों में प्रत्येक के निम्नलिखित बारह-बारह भेद होते हैं -
१. बहु २. अल्प ३. बहुविध ४. अल्प विध ५. क्षिप्र ६. अक्षिप्र-चिर ७. निश्रित ८. अनिश्रित ९. सन्दिग्ध १०. असन्दिग्ध ११. ध्रुव १२. अध्रुव । . इस प्रकार प्रत्येक के बारह-बारह भेद होने से मतिज्ञान के २८x१२ = ३३६ भेद हो जाते हैं। उपरोक्त सब भेद श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के हैं। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेद हैं - १ औत्पत्तिकी बुद्धि २. वैनयिकी ३. कार्मिकी ४. पारिणामिकी । ये चार भेद और मिलाने से मतिज्ञान के कुल ३४० भेद हो जाते हैं। जहाँ ३४१ भेद किये जाते हैं वहाँ जातिस्मरण का एक भेद और माना जाता है।
औत्पत्तिकी बुद्धि के २७ दृष्टान्त हैं। वैनयिकी बुद्धि के १५ दृष्टान्त हैं। कर्मजा (कम्मिया) बुद्धि के १२ दृष्टान्त हैं। पारिणामिकी बुद्धि के २१ दृष्टान्त हैं। इन सभी दृष्टान्तों का विस्तृत विवेचन जैन संस्कृति रक्षक संघ द्वारा प्रकाशित नन्दी सूत्र में है। 'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह' के चौथे, पांचवें और छठे भाग में भी अनुवाद दिया गया है। दृष्टान्त बड़े रोचक हैं। जिज्ञासुओं को उन स्थलों पर देखना चाहिए ।
उनतीसवां समवाय - एगूणतीसइ विहे पावसुय पसंगे पण्णत्ते तंजहा - भोमे, उप्पाए, सुमिणे, अंतरिक्खे (अंतलिक्खे) अंगे, सरे, वंजणे, लक्खणे, भोमे तिविहे पण्णत्ते तंजहासुत्ते, वित्ती, वत्तिए एवं एक्केक्कं तिविहं विकहाणुजोगे, विजाणुजोगे, मंताणुजोगे, जोगाणुजोगे, अण्णतित्थिय पवत्ताणुजोगे । आसाढे णं मासे एगूणतीसराइंदियाई
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