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समवायांग सू
जल लगा रहने पर उससे आहार न लेना चाहिए। ऐसे हाथ, कुड़छी आदि से आहारादि लेना शबल दोष है। मोहनीय कर्म की अनन्तानुबन्धी चार और दर्शन त्रिक इन सात प्रकृतियों का क्षय करने वाले निवृत्ति बादर नामक आठवें गुणस्थानवर्ती जीव के मोहनीय की इक्कीस कर्म प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। वे इस प्रकार हैं १. अप्रत्याख्यान क्रोध, २. अप्रत्याख्यान मान, ३. अप्रत्याख्यान माया ४. अप्रत्याख्यान लोभ ५. प्रत्याख्यानावरण क्रोध, ६. प्रत्याख्यानावरण मान ७. प्रत्याख्यानावरण माया ८ प्रत्याख्यानावरण लोभ ९. संज्वलन क्रोध, १०. संज्वलन मान ११. संज्वलन माया १२. संज्वलन लोभ १३. स्त्री वेद १४. पुरुष वेद १५. नपुंसक वेद १६. हास्य १७. अरति १८. रति १९ भय २०. शोक २१. दुगुंछा - जुगुप्सा । प्रत्येक अवसर्पिणी काल का दुःषमा नामक पांचवां आरा और दुःषम दुःषमा नामक छठा आरा इक्कीस इक्कीस - हजार वर्ष के कहे गये हैं । प्रत्येक उत्सर्पिणी काल का दुःषमं दुःषमा नामक पहला आरा और दुःषमा नामक दूसरा आरा इक्कीस इक्कीस हजार वर्ष का कहा गया है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की कही गई है। तमः प्रभा नामक छठी नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति इक्कीस सागरोपम की कही गई है । असुरकुमार देवों में कितनेक देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की कही गई है। आरण नामक ग्यारहवें देवलोक में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम की कही गई है। अच्युत नामक बारहवें देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम की कही गई है। अच्युत देवलोक के अन्तर्गत श्रीवत्स, श्रीदामगण्ड, माल्य, कृष्ट, चापोन्नत आरणावतंसक, इन छह विमानों में जो देव देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम की कही गई है। वे देव इक्कीस पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को इक्कीस हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इक्कीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ २१ ॥
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CELEREDEREE
विवेचन - 'शबल' शब्द का अर्थ है चित्तकबरा । अर्थात् जैसे सफेद कपड़े में बीच बीच में काले धब्बे लग जायं उसी तरह से शुद्ध चारित्र में दोष लग जाय तो वह शबल चारित्र कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जिन कार्यों के सेवन से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है, उसमें दोष लग जाता है उन्हें शबल दोष कहते हैं। ऐसे कार्यों को सेवन करने वाले साधु भी शबल कहलाते हैं। उत्तर गुणों में अतिक्रम आदि चारों दोषों का सेवन करने से
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