________________
समवाय १९
९३
म. सा. के सुशिष्य पूज्य आचार्य श्री घासीलाल जी म. सा. ने लिखा है कि - साधु-साध्वी को गृहस्थ के बर्तन में आहार पानी नहीं करना चाहिए तथा गृहस्थ का बर्तन मिट्टी या लोहे आदि के कुन्डे को कपड़े धोने के काम में नहीं लेना चाहिए तथा गरम पानी आदि को ठण्डा करने के लिए परात-थाली आदि को काम में नहीं लेना चाहिए।
__ आचाराङ्ग सूत्र के दो श्रुतस्कन्ध हैं। पहले श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं और दूसरे श्रुतस्कन्ध में पांच चूडा (चूला) हैं। यहाँ पर आचाराङ्ग के १८००० पद बतलाये गये हैं। वे सिर्फ पहले श्रुत स्कन्ध के ही समझना चाहिए। यह पहला श्रुत स्कन्ध चूला सहित है। यह बात बतलाने के लिये "सचूलियागस्स" यह शब्द दिया है। पद संख्या में चूलिका शामिल नहीं है। क्योंकि चूलिका में तो बहुत बहुतर पद है। जिससे अर्थ का बोध हो उसे पद कहते हैं। ऐसा टीकाकार ने लिखा है। संस्कृत में तो "विभक्त्यन्तं पदम्" अर्थात् जिसके अन्त में "स्यादि" और "त्यादि" विभक्ति हो उसे पद कहते हैं। कौमुदी व्याकरण में तो "सुबन्त" और तिङन्त को पद कहा है। आगम में पद की व्याख्या किस तरह की है, यह देखने में नहीं आया। .. अक्षर लिखने की विधि को लिपि कहते हैं। उसके यहाँ अठारह भेद बतलाये गये हैं। • किन्तु अङ्क संख्या उन्नीस दे दी है। प्रज्ञापना सूत्र के पहले पद में भी लिपि के अठारह भेद दिये हैं। परन्तु यहाँ के नामों में और क्रम में भेद है। यहाँ टीकाकार ने लिखा है कि इन लिपियों का अर्थ देखने में नहीं आया है। इसलिये विवेचन नहीं किया गया है।
उन्नीसवाँ समवाय एगूणवीसं णायज्झयणा पण्णत्ता तंजहा -
उक्खित्तणाए संघाडे, अंडे कुम्मे व सेलए । तुंबे य रोहिणी मल्ली, मागंदी चंदिमा त्ति य ॥ दावहवे उदगणाए, मंडुक्के तेतली इय । णंदिफले अवरकंका, आइण्णे सुंसुमा इ य ।
अवरे य पोंडरीए, णाए एगूणवीसमे ॥ जंबूद्दीवे णं दीवे सूरिया उक्कोसेणं एगूणवीसं जोयण सयाई उड्डमहो तवयंति। सुक्के णं महग्गहे अवरेणं उदिए समाणे एगूणवीसं णक्खत्ताइं समं चारं चरित्ता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org