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समवाय १७
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कदम भरता जाता है त्यों त्यों वह मृत्यु के नजदीक पहुँचता जाता है। यही बात संसारी प्राणी के लिये भी समझनी चाहिए। इसीलिये श्रमण भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं कि -
"समयं गोयम मा पमायए" .. हे गौतम! धर्म कार्य करने में एक समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । दूसरी जगह भी कहा है
सांस सांस पर प्रभु भज, वृथा सांस मत खोय । कुण जाणे इण सांस का, आणा होय क ना होय ॥ क्षण क्षण क्षण क्षण करतां, जीवन बीता जाय । क्षण क्षण का उपयोग कर, बीता क्षण फिर न आय ॥ जो जो क्षण बीत गया, शीश पकड़ क्यों रोय ।
यह क्षण आया सामने, इसे वृथा मत खोय ॥ - इस प्रकार ज्ञानियों ने जीवन की क्षण भङ्गरता को जानकर धर्म करणी करने के लिये बहुत बहुत प्रेरणा दी है।
. पादपोपगमन मरण - "पादैः पिबति इति पादपः "अर्थात् जो पैरों (अपनी जड़ों) से पानी पीता है उसे पादप (वृक्ष) कहते हैं। वह पवन के जोर से सम या विषम उबड़ खाबड़ जगह में जिस अवस्था में गिर पड़ता है। वह उसी तरह से पड़ा रहता है। पादपोपगमन संथारे में भी साधक जिस पसवाड़े आदि पर सो जाय उसको वैसा ही सोते रहना चाहिए। कहीं किसी प्रकार की हलन चलन नहीं करना चाहिये। शास्त्र में कहीं कहीं पर पादपोपगमन के स्थान पर "पाओगमण" अर्थात् पादगमन शब्द आता है। टीकाकार ने इसका अर्थ स्पष्ट किया है कि - पाद का अर्थ है पैर और गमन का अर्थ है जाना। तात्पर्य यह है कि साधक संथारा करने के लिये अपने गुरुदेव आदि से आज्ञा लेकर "कडाई" स्थविरों के साथ स्वयं अपने पैरों से चलकर पर्वत आदि एकान्त स्थान में जाता है। साधक अपने पैरों से चलकर जाता है इसलिये इसे पादगमन संथारा भी कहते हैं। जिन सन्तों ने मासखमण दो मासखमण आदि उत्कृष्ट तपश्चर्या करके अपने शरीर को तपश्चर्या से होने वाले भूख प्यास आदि कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करने के योग्य बना लिया हो ऐसे योग साधना करने वाले सन्त मुनिराजों को "कड़ाई" (कृतयोगी) स्थविर कहते हैं। ये जिस संथारा करने वाले मुनिराज के साथ जाते हैं उस मुनि का जब तक संथारा चलता है तब तक प्रायः ये भी चौविहार तपश्चर्या करते हैं। .
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