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समवाय १५
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शंका - कार्मण काय योग के समान तैनस् काययोग अलग क्यों नहीं माना गया हैं?
समाधान - तैजस् और कार्मण का सदा साहचर्य (साथ) रहता है अर्थात् औदारिक आदि अन्य शरीर कभी कभी कार्मण शरीर को छोड़ भी देते हैं परन्तु तैजस् शरीर कार्मण शरीर को कभी नहीं छोड़ता है। इसलिये वीर्यशक्ति का जो व्यापार कार्मण काययोग द्वारा होता है वही नियम से. (निश्चित रूप से) तैजस् शरीर द्वारा भी होता रहता है। इसलिये कार्मण काययोग में ही तैनस् काय योग का समावेश हो जाता है इसलिये तैजस् काययोग अलग नहीं माना गया है। . .. जीव परभव से आकर जब वैक्रिय के १४ दण्डकों में जन्म लेता है तब कार्मण काययोग का वैक्रिय के साथ सम्बन्ध (मिश्रण) होने से शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होने तक वैक्रिय मित्र माना गया है। इसके बाद वैक्रिय काय योग होता है। इसी प्रकार जीव जब परभव से आकर औदारिक के दस दण्डकों में जन्म लेता है तब अपर्याप्त अवस्था तक
औदारिक मिश्र होता है। शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाने पर औदारिक काय योग होता है अर्थात् शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होते ही औदारिक मिश्र काय योग छूट जाता है और औदारिक काययोग शुरू होता है। विग्रह गति में सिर्फ कार्मण काय योग ही रहता है।
आगमकार की यह मान्यता है कि जब जीव जिस सरीर को छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करता है तब बनाये जाने वाले शरीर की प्रधानता होने से उसकी मित्रता होती है। जैसे कि - मनुष्य औदारिक शरीर से वैक्रिय शरीर बनाता है तो वैक्रिय मिश्र और आहारक शरीर बनाता है तो आहारक मिश्र काय योग होता है। वैक्रिय से अथवा आहारक शरीर से वापिस औदारिक में आता है तब औदारिक मिश्र काय योग होता है।
कर्मग्रन्थ आदि ग्रन्थों की मान्यता कहीं कहीं आगम से मेल नहीं खाती है। अतः आगम मान्यता सर्वोपरि है। ... उपरोक्त शतभिषक् भरणी आदि छह नक्षत्र चन्द्रमा के साथ १५ मुहूर्त तक योग जोड़ते हैं।
ऊपर यह जो बतलाया गया है चैत्र और आश्विन मास की पूर्णिमा को दिन भी पन्द्रह मुहूर्त का और रात भी पन्द्रह मुहूर्त की होती है। यह स्थूल न्याय को लेकर कहा गया है। निश्चय में तो मेष संक्रान्ति और तुला संक्राति के दिन दिवस भी १५ मुहूर्त का और रात्रि भी १५ मुहूर्त की होती है।
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