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समवाय ११
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त्याग करता है और दसवीं पडिमा में अपने लिये बनाये हुए आहार पानी का त्याग करता है अर्थात् अनुमोदना का भी त्याग करता है। इसमें इतना ध्यान रखने की आवश्यकता है कि - करने वाला, कराने वाला और अनुमोदन में समान परिणाम विचार-धारा और विवेक आदि हों तो ही ऐसा समझना चाहिये। श्रावक महारम्भ का त्याग पहले करता है। यहाँ पर भी स्वयं करने रूप महारम्भ का त्याग पहले किया है। कराने और अनुमोदने रूप अल्प पाप का त्याग पीछे किया है।
- प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में चौबीस-चौबीस तीर्थकर होते हैं। प्रत्येक तीर्थङ्कर के गणधर होते हैं। उनकी संख्या भिन्न-भिन्न होती है। इस अवसर्पिणी काल के तीर्थङ्करों के गणधरों की संख्या इस प्रकार हुई थी -
१. भगवान् ऋषभदेव ८४ २. भगवान् अजितनाथ ३. भगवान् संभवनाथ १०२ ४. भगवान् अभिनन्दनस्वामी . ११६ ५. भगवान् सुमतिनाथ १०० । ६. भगवान् पद्मप्रभस्वामी ७. भगवान् सुपार्श्वनाथ ९५ ८. भगवान् चन्द्रप्रभस्वामी ९. भगवान् सुविधिनाथ ८८ १०. भगवान् शीतलनाथ ११. भगवान् श्रेयांसनाथ ७६ १२. भगवान् वासुपूज्य स्वामी. १३. भगवान् विमलनाथ ५७ १४. भगवान् अनन्तनाथ १५. भगवान् धर्मनाथ ४३ १६. भगवान् शान्तिनाथ १७. भगवान् कुंथुनाथ ३५ ... १८. भगवान् अरनाथ १९. भगवान् मल्लिनाथ २८ २०. भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी १८ २१. भगवान् नमिनाथ १७ , २२. भगवान् अरिष्टनेमिनाथ २३. भगवान् पार्श्वनाथ ८ . २४. भगवान् महावीर स्वामी ११
जब तीर्थङ्कर भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब पहली धर्मदेशना (धर्मोपदेश) देते हैं, उसमें जितने गणधर होने होते हैं उतने हो जाते हैं। भगवान् महावीर स्वामी को वैसाख सुदी १० के दिन सुव्रत दिवस विजय मुहूर्त उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर दिन के पिछले भाग में जूंभिका ग्राम नगर से बाहर ऋजुबालुका नदी के उत्तर तट पर शामाक गाथापति के खेत में वैयावृत्य नामक चैत्य के ईशान कोण में शाल वृक्ष के नजदीक गोदुहिका नामक उकडु आसन से बैठे हुए आतापना लेते हुए चौविहार बेले की तपस्या में केवलज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न हुआ। भगवान् की प्रथम देशना हुई। चार जाति के
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