________________
समवाय १२
५७
करना चाहिए। ग्राम के बाहर जाकर उत्तानासन, पाश्र्वासन या निषदयासन से ध्यान लगा कर समय व्यतीत करना चाहिए। वहां जो उपसर्ग आवें उन्हें समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। - ९. नवमी पडिमा का समय सात दिन रात है। इसमें एकान्तर चौविहार उपवास किया जाता है। ग्राम के बाहर जाकर दण्डासन, लकुटासन या उत्कटासन से ध्यान करना चाहिए और उपसर्गों को समभाव से सहन करना चाहिए।
१०. दसवीं पडिमा का समय सात दिन रात है। इसमें चौविहार उपवास किया जाता है। ग्राम के बाहर जाकर गोदुहासन, वीरासन या आम्रकुब्जासन से ध्यान लगा कर समय व्यतीत करना चाहिए और उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए ।
११. ग्यारहवीं पडिमा एक अहोरात्रिकी अर्थात् एक दिन रात की होती है। चौविहार बेला करके इस पडिमा का आराधन किया जाता है। ग्राम के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित कर हाथों को घुटनों तक लम्बा करके कायोत्सर्ग करना चाहिए ।
१२. बारहवीं पडिमा का नाम एकरात्रिकी है। इसका समय सिर्फ एक रात है। इसका आराधन चौविहार तेला करके किया जाता है। ग्राम के बाहर श्मशान भूमि में जाकर किसी एक पदार्थ पर दृष्टि जमा कर निश्चलता पूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए। उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। इस पडिमा का सम्यक् पालन न करने से तीन बातें अहितकारी हो जाती है - उन्माद की प्राप्ति हो जाती है, लम्बे समय तक रहने वाले रोगादि की प्राप्ति हो जाती है अथवा केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इस पडिमा का सम्यक् रूप से पालन करने से अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन तीनों में से किसी एक ज्ञान की अवश्य प्राप्ति होती है। यह पडिमा हित, शुभ, शक्ति और मोक्ष के लिए तथा ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए होती है।
सम्भोग - समान समाचारी वाले साधुओं के सम्मिलित आहार आदि व्यवहार को सम्भोग कहते हैं। वह सम्भोग बारह प्रकार का कहा गया है वह इस प्रकार है - १. उपधि अर्थात् वस्त्र पात्र आदि उपधि को परस्पर लेने देने के लिए बना हुआ नियम । २. श्रुत - परस्पर शास्त्र की वाचना लेना देना। ३. भक्त पान - आहार पानी परस्पर लेना देना। ४. अञ्जलिप्रग्रह - परस्पर वन्दन नमस्कार करना। ५. दान - शिष्यादि को परस्पर लेना देना। ६. निकाचन यानी निमन्त्रण - शय्या, उपधि, आहार आदि के लिए परस्पर निमंत्रण देना। ७. अभ्युत्थान - अपने से बड़े साधु को आते देख कर आसन से उठना। ८.. कृतिकर्म करण - विधिपूर्वक वन्दना करना। ९. वैयावृत्य करण - ग्लान, वृद्ध, तपस्वी आदि साधुओं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org