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समवायांग सूत्र RAMANARTHATANTRNAMAHARMAnmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm जीवा जे तेरसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥१३॥
कठिन शब्दार्थ - तेरस - तेरह, किरियाट्ठाणा - क्रिया स्थान, अकम्हादंडे - अकस्मात् दण्ड, दिट्ठिविप्परियासियादंडे - दृष्टि विपर्यास दण्ड, मुसावायवत्तिए - मृषावाद प्रत्ययिक, अदिण्णादाणवत्तिए - अदत्तादान प्रत्ययिक, अज्झथिए - अध्यात्म प्रत्ययिक, माणवत्तिए - मान प्रत्ययिक, मित्तदोसवत्तिए - मित्र द्वेष प्रत्ययिक, ईरियावहिए - ईयापथिकी, विमाण पत्थडा - विमानों के प्रस्तट (पाथड़े), अद्धतेरस जाइकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्साई - साढे बारह लाख कुल कोड़ी योनि प्रमुख, पाणाउस्स पुव्वस्स - प्राणायु पूर्व की, मण पओगे - मन योग, वइ पओगे - वचन योग, काय पओगे - काय प्रयोग, जोयणेणं एगसट्ठिभाएहिं - एक योजन के इकसठिये भाग । .
भावार्थ - क्रियास्थान - कर्मबन्ध के कारण तेरह कहे गये हैं वे ये हैं - १. अर्थदण्डअपने शरीर या स्वजनादि के लिए छह काय जीवों का आरम्भ करना। २. अनर्थदण्ड - किसी भी प्रयोजन के बिना किया जाने वाला पाप । ३. हिंसादण्ड - किसी जीव ने मुझे मारा है, मारता है या मारेगा यह सोच कर उसकी हिंसा करना। ४. अकस्माद्दण्ड - किसी जीव को मारने के लिए प्रवृत्त हुआ पुरुष भ्रमवश किसी दूसरे को मार देवे । ५. दृष्टिविपर्यास दण्ड - नजर चूक जाने के कारण या भ्रमवश दूसरे को मार देना। ६. मृषावाद प्रत्ययिक - झूठ बोलने से लगने वाला पाप । ७. अदत्तादान प्रत्ययिक - चोरी करने से लगने वाला पाप। ८. अध्यात्म प्रत्ययिक - मानसिक दुष्ट विचारों से लगने वाला पाप । ९. मान प्रत्ययिक - मान एवं अहङ्कार के कारण होने वाला पाप। १०. मित्र द्वेष प्रत्ययिक - अपने मित्रों और कुटुम्बियों के प्रति द्वेष करने से लगने वाला पाप। ११. माया प्रत्ययिक - माया कपट के कारण लगने वाला पाप। १२. लोभ प्रत्ययिक - लोभ और आसक्ति के कारण लगने वाला पाप। १३. ईर्यापथिंकी - यह क्रिया ग्यारहवें, बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थानवी जीव को लगती है। यह साता रूप होती है। इसकी स्थिति दो समय की होती है। पहले समय में बन्धती है। दसरे समय में भोगी जाती है और तीसरे समय में निर्जर जाती है अर्थात उसकी निर्जरा हो जाती है। ऐसी क्रिया से होने वाला कर्म पहले समय में बंधता है, दूसरे समय में भोगा जाता है और तीसरे समय में निर्जर जाता है-छूट जाता है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में तेरह विमान प्रस्तट-प्रस्तर (पाथड़े) कहे गये हैं। पहला सौधर्म देवलोक मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर दक्षिण चौड़ा अर्द्ध
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