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समवाय १०
४५ .
देवाणं जहण्णेणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं णंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिजं मंगलावत्तं बंभलोगवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं (दसहिं अद्धमासेहिं) अत्थेगइयाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा। तेसिणं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ १० ॥ ___ कठिन शब्दार्थ - दसविहे - दस प्रकार का, समणधम्मे - श्रमण धर्म, अजवे - आर्जव, महवे - मार्दव, लाघवे - लाघव, चियाए - त्याग, बंभचेरवासे - ब्रह्मचर्यवास, असमुप्पणपुव्वा धम्मचिंता - जिसके चित्त में पहले धर्म की भावना उत्पन्न नहीं हुई थी, समुप्पजिजा - उत्पन्न होवे, दिव्वं - दिव्य, देविड्डि - देव ऋद्धि, देवजुइं - देवद्युतिकांति, देवाणुभावं - देव प्रभाव, ओहिणाणे - अवधिज्ञान, ओहिदसणे - अवधिदर्शन, मणपज्जवणाणे - मनःपर्यवज्ञान, मणोगए - मनोगत, जाणित्तए - जानने के लिए, पासित्तएदेखने के लिए, मंदरे पव्वए - मन्दर (मेरु) पर्वत, णाणवुड्डिकरा - ज्ञान की वृद्धि करने वाले, रुक्खा - वृक्ष, लंतए - लान्तक। ___भावार्थ - श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है। यथा - १. क्षमा - क्रोध पर विजय प्राप्त करना, क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध न करना अपितु शान्ति रखना। २. मुक्ति - लोभ पर विजय प्राप्त करना, पौद्गलिक वस्तुओं पर आसक्ति न रखना। ३. आर्जव - कपट रहित होना, माया ठगाई का त्याग करना। ४. मार्दव - मान का त्याग करना, जाति कुल रूप ऐश्वर्य तप ज्ञान लाभ और बल इन आठ में से किसी का मद न करना। ५. लाघव - द्रव्य से अल्प उपधि रखना और भाव से माया, निदान (नियाणा) मिथ्यात्व इन तीन शल्यों का त्याग करना। ६. सत्य, हित और मित वचन बोलना। ७. संयमसतरह प्रकार के संयम का पालन करना। ८. तप - बारह प्रकार का तप करना। ९. त्याग - सर्व सङ्गों का त्याग करना, किसी वस्तु पर मूर्छा-ममत्व न रखना। १०. ब्रह्मचर्यवास - नववाड़ सहित पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना। चित्त समाधि के दस स्थान यानी कारण कहे गये हैं यथा - १. जिसके चित्त में पहले धर्म की भावना उत्पन्न नहीं हुई थी उसके चित्त में सब धर्मों को जानने के लिए धर्म की भावना उत्पन्न हो जाने से चित्त में समाधि होती है।
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