________________
समवाय १०
जो दर्शन को रोके उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। उसके नौ भेद हैं। चक्षु (आंख) से होने वाला ज्ञान चक्षु दर्शन और चार इन्द्रियाँ तथा मन से जो पदार्थों का सामान्य बोध होता है उसे अचक्षु दर्शन कहते हैं । अवधि दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य बोध को अवधि दर्शन कहते हैं। केवल दर्शनावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय होने पर आत्मा द्वारा संसार के सकल पदार्थों का जो सामान्य ज्ञान होता है उसे केवल दर्शन कहते हैं।
१. निद्रा - सुख पूर्वक सोकर सुखपूर्वक जगना ।
२. निद्रा-निद्रा- सुख पूर्वक सो कर मुश्किल से जगना ।
३. प्रचला - खड़े हुए या बैठे हुए जो व्यक्ति को नींद आती है। उसे प्रचला कहते हैं । चलते चलते व्यक्ति को जो नींद आती है वह प्रचलाप्रचला
४. प्रचलाप्रचला
-
४३
Jain Education International
निद्रा कहलाती है ।
५. स्त्यानगृद्धि - जिस निद्रा में जीव दिन में अथवा रात में सोचा हुआ काम निद्रावस्था में कर डालता है वह स्त्यानगृद्धि है । वज्रऋषभ नाराच संहनन वाले जीव को जब स्त्यानगृद्धि निद्रा आती है तब उसमें वासुदेव का आधा बल आ जाता है। ऐसी निद्रा में मरने वाला जीव, यदि आयु न बांध चुका हो तो, नरक गति में जाता है ।
निद्रा और प्रचला का उदय २४ ही दण्डक में है । २४ ही दण्डक के जीवों को निद्रा और प्रचला आती है। ऐसा भगवती सूत्र के ५ वें शतक के चौथे उद्देशक में मूलपाठ में बताया गया है।
दसवां समवाय
दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते तंजहा खंती मुत्ती अज्जवे मद्दवें लाघवे सच्चे संजमे तवे चियाए बंभचेरवासे । दस चित्त समाहिट्ठाणा पण्णत्ता तंजहा - धम्मचिंता वा से असमुप्पण्णपुव्वा समुप्पज्जिज्जा सव्वं धम्मं जाणित्तए, सुमिणदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए, सण्णिणाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिज्जा पुव्वभवे सुमरित्तए, देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुज्जिज्जा दिव्वं देविद्धिं दिव्वं देवजुडं दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए, ओहिणाणे वा से असमुप्पण्णपुळे समुप्पज्जिज्जा ओहिणा लोगं जाणित्तए, ओहिदंसणे वा से
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org