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समवाय ६
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समुद्घात कहे गए हैं । यथा
वेदना समुद्घात
असातावेदनीय कर्म की निर्जरा करना ।
कषाय समुद्घात - उदीरणा द्वारा कषायों की निर्जरा करना । मारणान्तिक समुद्घात - उदीरणा द्वारा आयु कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करना । वैक्रिय समुद्घात - वैक्रिय करते समय अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर पूर्व बद्ध वैक्रिय शरीर नाम कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करना । तैजस् समुद्घात - तेजोलेश्या निकाल कर तैजस शरीर नाम कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करना। आहारक समुद्घात- आहारक शरीर निकाल कर पूर्वबद्ध आहारक नाम कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करना । अर्थावग्रह - सामान्य रूप से पदार्थों का जानना अर्थावग्रह कहलाता है। यह छह प्रकार का कहा गया है। यथा - श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, चक्षु इन्द्रिय अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, जिह्वेन्द्रिय अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह, नोइन्द्रिय अर्थात् मन अर्थावग्रह | . कृत्तिका नक्षत्र और अश्लेषा नक्षत्र छह-छह तारों वाले कहे गये हैं । इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति छह पल्योपम की कही गई है। तीसरी वालुका प्रभा नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति छह सागरोपम की कही गई है। असुरकुमारों में कितनेक देवों की स्थिति छह पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति छह पल्योपम की कही गई है। सनत्कुमार और माहेन्द्र नामक तीसरे और चौथे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति छह सागरोपम की कही. गई है । स्वयम्भू, स्वयम्भूरमण, घोष, सुघोष, महाघोष, कृष्टिघोष, वीर, सुवीर, वीरगत, वीरसैनिक, वीरावर्त्त, वीरप्रभ, वीरकान्त, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरश्रृङ्ग, वीरसृष्ट या वीरसिद्ध, वीरकूट, वीरोत्तरावतंसक इन बीस विमानों में जो देव देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छह सागरोपम की कही गई । वे देव छह पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं । उन देवों को छह हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। जो भवसिद्धिक जीव हैं, उनमें से कितनेक छह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ॥ ६ ॥
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विवेचन लेश्या - कषाय और योग के निमित्त से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध होना 'लेश्या' कहलाता है। मूल में इसके दो भेद हैं द्रव्य, लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या के लिए कहा है
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कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्या शब्दः प्रवर्त्तते ॥
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