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होनेसे परम ऋषिपणा प्राप्त भयो है ताते यथाख्यात चारित्र पाले है । अर यथाख्यात चारित्र धारण करनेसे संन्यासी कहावे है तथा ज्ञान दर्शन अर चारित्र आदि जे सहज ( स्वाभाविक ) योग है। तिनको धरनारे ते सहयोगी है इस संयोग ( १३ वें ) गुणस्थान में मन वचन अर देहके योग है, तथा चार अघातिया कर्मकी ८५ प्रकृतीहूं है परंतु वो प्रकृती ऐसी उदासीन शक्ती रहित हो रही है जैसी दुग्ध वस्तूकी भस्म रहजाय है । अर जो आपने देहरूप मंदिरमें चेतनरूप प्रत्यक्ष शोभे है, ऐसा परमौदारिक शरीरमें तिष्ठता जिनराज है ताक बनारसीदास वंदना करे है. ये निश्चय स्तुति कही ॥ २९ ॥
॥ अव शुद्ध परमात्म स्तुतिका दृष्टांत कह कर निश्चय अर' व्यवहारको निर्णय करे है | कवित्त छंद ॥
तनु चेतन व्यवहार एकसें, निहचे भिन्न भिन्न है दोइ || तनुकी स्तुति विवहार जीवस्तुति, नियतदृष्टि मिथ्याथुति सोइ ॥ जिन सो जीव जीव सो जिनवर, तनुजिन एक न माने कोइ ॥ ता कारण तनकी जो स्तुति, सों जिनवरकी स्तुति नाहीं होइ ॥ ३० ॥
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अर्थ – शरीर अर आत्मा ये व्यवहार नयते एक है, अर निश्चय नयते दोऊही भिन्नभिन्न है । तातै तनु जो शरीर ताकी जे खुति है सो व्यवहार जीव स्तुति है, अर निश्चयते देखिये तो सो शरीर स्तुति असत्य है स्तुति कैसी कहीजाय । जीवही कर्मवैरीकूं जीते जिन होय है ताते जिन है सो जीव है। अर जीव है सो जिन है, पण शरीर अर जिन इनको एक करी कोई नही माने है । तिस कारणते | शरीरकी जो स्तुति है, सो जिनवरकी स्तुति कैसी होयगी ? नही होयगी ॥ ३० ॥