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वृद्धवत् देह जीर्ण नहि होय है ) जन्मते मोक्ष होने पर्यंत महा रूप अर महा बल समान रहे है । प्रयत्न विनाही जिनके शरीरमें अनेक गुण, अर चौतीस अतिशय ( महिमा) विराजमान हो रहें है। अर जिनका देह प्रस्वेदादि मल रहित अति निर्मल है । जैसे विना पवन समुद्र अचल रहे, तैसे जिनको मन अर आसन अचल रहे है । ऐसे जिनराजदेव जगतमें जयवंत रहो, जिनकी शुभ भक्ति करनेसे मुक्तिको फल प्राप्त होय है ॥ २६ ॥
॥ अव जिन स्वरूप यथार्थ कथन ॥ दोहा ॥ - जिनपद नांहि शरीरको, जिनपद चेतनमांहि। जिनवर्णन कछु और है, यह जिनवर्णन नांहि ॥ २७ अर्थ-कर्म वैरीकूं जीते सो जिन है तातै जिन ऐसा पद शरीरकूं नहीं है, जिनपद है सो शुद्ध आत्माको है । जिन जो परमात्मा ताका वर्णन कछु और प्रकारका है, अर पूर्वे ( २५ | २६ कवित्तमें) | जो वर्णन कीया है सो शरीराश्रित जिनका है जिन परमात्माका नहि है ॥ २७ ॥ || अब पुद्गल अर चेतनके भिन्न स्वभाव दृष्टांत ॥ सवैया ३१ सा ॥ -
उंचे उंचे गढके कांगुरे यों विराजत हैं, मानो नभ लोक गीलिवेकों दांत दियो है सोहे चहुंओर उपवनकी सघन ताई, घेरा करि मानो भूमि लोक घेरि लियो है ॥ गहरी गंभीर खाई ताकी उपमा बताई, नीचो करि आनन पाताल जल पियो है ॥ ऐसा है नगर यामें नृपको न अंगकोउ, योंही चिदानंदसों शरीर भिन्न कियो है ॥ २८ ॥ अर्थ- अब इहां कवी एक नगरका दृष्टांत देयके राजाका भिन्नपणा दिखावै है, तैसेही शरीररूपी नगरीमें आत्मराजा भिन्न है सो कहे है — कैसा है नगर ? जाको उंचे उंचे कोटके कांगुरे ऐसे