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'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति' की व्याख्या में भट्टलोल्लट, शङ्कुक और भट्टनायक के मतों की समालोचना करके अपने मत को पुष्ट किया है।
____ मातृगुप्त- सुन्दरमिश्र ने अपने ग्रन्थ नाट्यप्रदीप (रचनाकाल 1613ई0) में नान्दीविषयक भरत के कथन की टीका करते हुए कहा है 'अस्य व्याख्याने मातृगुप्ताचार्यैः इयमुदाहृता'। राघवभट्ट ने अभिज्ञानशाकुन्तल और वासुदेव ने कपूरमञ्जरी की टीका में नाट्यविद्या के आचार्य के रूप में मातृगुप्त का उल्लेख किया है। कल्हण ने राजतरङ्गिणी में भी राजा तथा कवि के रूप में उल्लेख किया है। अभिनवगुप्त ने सङ्गीत-विषयक तथा शारदातनय ने नाट्यवस्तु-विषयक इनके मत का उल्लेख किया है। सागरनन्दी ने अपनी पुस्तक नाटकलक्षणरत्नकोश में इनके कई श्लोकों तथा शाङ्गदेव ने सङ्गीत के प्रमाणभूत आचार्य के रूप में उद्धृत किया है।
उद्भट- शार्ङ्गदेव ने अपने सङ्गीतरत्नाकर में भरत के नाट्यशास्त्र के एक प्राचीन टीकाकार के रूप में उद्भट का नामोल्लेख किया है। अभिनवगुप्त द्वारा उद्भट के अनेक मतों के उल्लेख से शादेव का उद्भट के टीकाकार होने का मत पुष्ट भी हो जाता है किन्तु अभी तक वह टीका प्राप्त नहीं हुई है। अभिनवगुप्त ने वृत्ति के सन्दर्भ में उद्भट की तीन वृत्तियों को ही स्वीकार करने का उल्लेख किया है भरत के समान चार वृत्तियों का नहीं। उन्होंने सम्पूर्ण नाट्यशास्त्र पर टीका लिखा था या नाट्यविद्या के कुछ ही प्रकरणों पर-यह बात स्पष्ट ज्ञात नहीं हो पाती।
__ भट्टलोल्लट- भट्टलोल्लट कश्मीरी पण्डित थे। अभिनवगुप्त ने अपनी टीका में रससूत्र की टीका के साथ ही साथ द्वादश, त्रयोदश, अष्टादश तथा एकविंशति अध्यायों की टीका में भट्टलोल्लट का पर्याप्त उल्लेख किया है। भट्टलोल्लट के समय के विषय में कोई पुष्ट प्रमाण. उपलब्ध नहीं है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ये शकुक से पूर्ववर्ती थे क्योंकि शङ्कुक ने भट्टलोल्लट के रससिद्धान्त का प्रत्यक्षतः खण्डन किया है। अभिनवगुप्त के अनुसार 'लोल्लट ने उद्भट के मत का विरोध किया था' से यह स्पष्ट होता है कि लोल्लट उद्भट से परवर्ती या समकालीन थे। इस प्रकार लोल्लट को उद्भट और शङ्कुक के मध्य में होना चाहिए। विद्वानों के अनुसार इनका समय नवीं शताब्दी है। इनकी भी नाट्यशास्त्र पर की गयी टीका उपलब्ध नहीं होती।
सर्वप्रथम लोल्लट ने ही रससूत्र की सम्यक् व्याख्या प्रस्तुत किया तथा 'संयोगात्' से कार्यकारण रूप भाव-सम्बन्ध और निष्पत्ति पद का उत्पत्ति अर्थ स्वीकार किया। मीमांसक होने के कारण अभिधा को ही समस्त काव्यार्थ का साधन स्वीकार करते थे। इनके अनुसार शब्द की प्रतीति उसी प्रकार होती है जैसे कोई बाण अकेले ही कवच को