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XXIX
भूमिका द्वेष (घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या आदि), 12. क्लेश (संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि), 13. अभ्याख्यान, 14. पिशुनता (चुगली), 15. परपरिवाद (परनिंदा), 16. रति-अरति (हर्ष और शोक), 17. माया-मृषा (कपट सहित असत्य भाषण), 18. मिथ्यादर्शनशल्य (अयथार्थ जीवन दृष्टि)। पुण्य (कुशल कर्म)
पुण्य वह है जिसके कारण सामाजिक एवं चैतसिक स्तर पर समत्व की स्थापना होती है। मन, शरीर और बाह्य परिवेश में संतुलन बनाना यह पुण्य का कार्य है। पुण्य क्या है, इसकी व्याख्या में तत्त्वार्थ सूत्रकार कहते हैं-शुभास्रव पुण्य है। दूसरे जैनाचार्यों ने इसकी व्याख्या दूसरे प्रकार से की है। आचार्य हेमचन्द्र पुण्य की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि पुण्य अशुभ कर्मों का लाघव है और शुभ कर्मों का उदय है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और शुभ कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है। निर्वाण की उपलब्धि में पुण्य के सहायक स्वरूप की व्याख्या आचार्य अभयदेव की स्थानांगसूत्र की टीका में मिलती है। आचार्य अभयदेव कहते हैं कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है। इस प्रकार आचार्य अभयदेव की दृष्टि में पुण्य आध्यात्मिक साधना में सहायक तत्त्व है। वस्तुत: पुण्य मोक्षार्थियों की नौका के लिए अनुकूल वायु है जो नौका को भवसागर से शीघ्र पार करा देती है। जैन बनारसीदासजी समयसार नाटक में कहते हैं कि-"जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे आत्मा आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता हो और जिससे इस संसार में भौतिक समृद्धि और सुख मिलता हो वही पुण्य है।''
___ जैन तत्त्व ज्ञान के अनुसार, पुण्य-कर्म वे शुभ पुद्गल परमाणु हैं जो शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित हो बंध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों