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पुण्य-पाप तत्त्व को अकर्म। समस्त साम्परायिक क्रियाएँ अर्थात् राग-द्वेष एवं कषाय युक्त क्रियाएँ कर्म की कोटि में आती हैं और ईर्यापथिक क्रियाएँ अकर्म की कोटि में आती हैं। नैतिक दर्शन की दृष्टि से प्रथम प्रकार के कर्म (क्रियाएँ) ही उचित-अनुचित की कोटि में आते हैं और दूसरे प्रकार के कर्म नैतिकता के क्षेत्र में आने वाले सभी कर्म भी एकसमान नहीं होते हैं। उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं। जैन परिभाषा में इन्हें क्रमश: पुण्य-कर्म और पाप-कर्म कहा जाता है। इस प्रकार जैनदर्शन के अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं-1. ईर्यापथिक कर्म (अकर्म) 2. पुण्य-कर्म और 3. पाप-कर्म। अशुभ या पाप कर्म
जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा की है कि वैयक्तिक संदर्भ में जो आत्मा को बंधन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्मशक्तियों का क्षय करे, वह पाप है।' सामाजिक संदर्भ में जो परपीड़ा या दूसरों के दु:ख का कारण है, वह पाप है (पापाय परपीडनम्)। वस्तुत: जिस विचार एवं आचार से अपना
और पर का अहित हो और जिससे अनिष्ट फल की प्राप्ति हो वह पाप है। वे सभी कर्म जो स्वार्थ, घृणा या अज्ञान के कारण दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किये जाते हैं, पाप कर्म हैं। इतना ही नहीं सभी प्रकार के दुर्विचार और दुर्भावनाएँ भी पाप कर्म हैं। पाप कर्मों का वर्गीकरण
जैन दार्शनिकों के अनुसार पाप कर्म 18 प्रकार के हैं-1. प्राणातिपात (हिंसा), 2. मृषावाद (असत्य भाषण), 3. अदत्तादान (चौर्यकर्म), 4. मैथुन (काम-विकार), 5. परिग्रह (ममत्व, मूर्छा, तृष्णा या संचय-वृत्ति), 6. क्रोध (गुस्सा), 7. मान (अहंकार), 8. माया (कपट, छल, षड़यंत्र और कूटनीति), 9. लोभ (संचय या संग्रह की वृत्ति), 10. राग (आसक्ति), 11.