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XXVII
भूमिका
इस प्रकार पुण्य को आस्रव रूप मानने के परिणामस्वरूप उसको हेय मानने की अवधारणा विकसित हुई। इस अवधारणा को आचार्य कुंदकुंद के इस कथन से अधिक बल मिला की पुण्य और पाप दोनों ही बंधन के हेतु होने से बेड़ी के समान ही हैं। फिर वह बेड़ी चाहे सोने की हो या फिर लोहे की हो, बंधन का कार्य तो करती ही है। इस प्रकार जब पाप के साथसाथ पुण्य को भी समतुला पर रखकर हेय मान लिया तो उसका परिणाम यह हुआ कि अध्यात्मवादी मुमुक्षु साधकों की दृष्टि में पाप के साथ-साथ पुण्य भी अनुपादेय बन गया और परिणामस्वरूप वे परोपकार और लोकमंगल के कार्यों को भी बंधन का निमित्त मान करके उनकी उपेक्षा करने लगे। आचार्य कुंदकुंद ने तो पुण्य और पाप को क्रमश: सोने और लोहे की बेड़ी ही कहा था। किंतु उनके परवर्ती टीकाकारों ने तो पुण्य-पाप दोनों को बंधन का रूप कहकर उनकी पूर्णत: उपेक्षा करना प्रारंभ कर दिया। पं. जयचन्दजी छाबड़ा अपनी समयसार की भाषा वचनिका में लिखते हैं
पुण्य पाप दोय करम, बंध रूप दुई मानी।
शुद्ध आतम जिन लह्यो, नमूं चरण हित जानी।।
इस प्रकार पाप के साथ-साथ पुण्य भी अनुपादेय मान लिया गया। चाहे पुण्य को आस्रव या बंध रूप मान भी लिया जाये फिर भी उसकी उपादेयता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। किंतु सही समझ के लिए कर्मों के बंधक और अबंधक होने की स्थिति की तथा उनके शुभत्वअशुभत्व एवं शुद्धत्व की समीक्षा अपेक्षित है। तीन प्रकार के कर्म
जैनदर्शन में 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' की उक्ति स्वीकार्य रही है, लेकिन इसमें सभी कर्म अथवा क्रियाएँ समान रूप से बंधनकारक नहीं हैं। उसमें दो प्रकार की क्रियाएँ मानी गई हैं-एक को कर्म कहा गया है, दूसरी