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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
कोई चिन्ता नहीं होती। उसे कोई परवाह नहीं रहती कि समाज और राष्ट्र में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? इसलिए वह धर्मकार्य से कोसों दूर हो जाता है। रात-दिन पाप कार्य में पड़े रहने से उसका हृदय प्राणियों के प्रति प्रेमपिपासा से शून्य हो जाता है, अपने स्वार्थ की प्यास भी वह बुझा नहीं पाता । इस प्रकार निर्दय और निष्करुण होकर वह हिंसापरायण जीव अन्त में नरक का ही मेहमान बनता है। क्योंकि इस दुष्कर्म के करते रहने से उसकी बुद्धि पर मूढ़ता का पर्दा पड़ जाता है। वह सोच ही नहीं पाता, कि इस दुष्कर्म का फल कितना दारुण और असीम वेदना के रूप में मुझे भोगना पड़ेगा। इसलिए मोहकर्म की वृद्धि होने से वह बार-बार मूढ़तावश इस दुष्कर्म में प्रवृत्त होता है और विविध दुर्गतियों में अपने जन्ममरण के महाभय में वृद्धि करता रहता है। किन्तु जब मौत की घड़ी आती है, उस समय वह अपने किये हुए बुरे कर्मों को याद कर-करके रोता है, दीन-हीन बन जाता है, गिड़-गिड़ाकर प्रभु से प्राणों की याचना करता है, उस समय उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है, उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा जाता है, वह बेमन से ही मृत्यु को स्वीकार करता है। परन्तु मूढ़तावश यह अपने द्वारा किन्ही प्राणियों को मारते समय यह नहीं सोचता कि इन प्राणियों की मृत्यु से इनके सम्बन्धियों में कितना वैमनस्य पैदा होगा और वे मुझसे बदले में पाई-पाई वसूल करेंगे, या ये प्राणी मरते समय अपने मन में मेरे प्रति वैमनस्य (वैरभाव) संजोकर दूसरी योनि में जाकर बदला लेंगे।
इस प्रकार प्राणवध परस्पर अनेक पापक्रियाओं से जुड़ा हुआ है, और वे क्रियाएं भी उत्तरोत्तर एक के बाद एक होती चली जाती हैं। इस प्रकार प्राणवध (हिंसा) का स्वरूप समझाने के साथ उसकी भयंकरता, उसका दूरगामी दुष्परिणाम और उसकी परम्परा से वास्तविक सुख की हानि भी बता दी है। अतः इसका स्वरूप समझकर इसे छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए।
_ 'नाम' और 'च' शब्द-इस सूत्र में 'नाम' शब्द जो आया है, वह केवल वाक्य की सुन्दरता बढ़ाने के लिए है और 'च' शब्द समुच्चय बोधक है।
हिंसा के पर्यायवाची नाम पूर्व सूत्र में हिंसा के स्वरूप का वर्णन किया गया था, अब दूसरे नाम द्वार के रूप में उसके समानार्थक नामों का उल्लेख करते हैं
। मूलपाठ तस्स य नामाणि इमाणि गोण्णाणि होति तीसं, तं जहा१पाणवहं, २ उम्मूलणा सरीराओ, ३ अवीसंभो, ४ हिंसविहिंसा, तहा ५ अकिच्चं च, ६ घायणा, ७ मारणा य, ८ वहणा,