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पद्मपुराणें
उनकी भार्या, पुत्री तथा दोहती तकके नामोंका उल्लेख है । यह दूसरी बात है कि आवश्यक निर्युक्ति [ गाथा नं. २२१-२२२ ] में भी जिसका निर्माण काल छठी शताब्दीसे पूर्वका नहीं है । वीर भगवान्को कुमारश्रमणों में परिगणित किया है परन्तु यह एक प्रकारसे दिगम्बर मान्यताका ही स्वीकार जान पड़ता है ।
[ ७ ] इस ग्रन्थसे ८३वें उद्देशमें राजा भरतकी दीक्षाका वर्णन करते हुए एक गाथा निम्न प्रकारसे दी है
अण्णओ गुरूणं भरहो काऊण तत्थऽलंकारं । निस्सेससंगरहिओ लुंचइ धीरो णिपयकेसे ॥ ५ ॥
इसमें वस्तुतः वस्त्र तथा अलंकारोंका त्याग करके भरत महाराजके सम्पूर्ण परिग्रहसे रहित होने और केशलोंच करनेका उल्लेख है, परन्तु 'काऊण तत्थऽलंकार' के स्थानपर यहाँ 'काऊण तत्थअलङ्कार' ऐसा जो पाठ दिया है वह किसी गलती अथवा परिवर्तनका परिणाम जान पड़ता है, अन्यथा अलंकार धारण करकेश्रृंगार - करके निःशेष संगसे रहित होने की बात असंगत जान पड़ती है। साथ ही 'तत्थ' शब्द और भी निरर्थक जान पड़ता है । अतः यह उल्लेख अपने मूलमें दिगम्बर मान्यताको ओर संकेतको लिये हुए है।
कुछ भिन्न प्रकारकी -
[१] इस ग्रन्थ में भगवान् ऋषभदेवकी माता मरुदेवीको आनेवाले स्वप्नोंकी संख्या १५ गिनायी है, जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वह १४ और दिगम्बर सम्प्रदाय में १६ बतलायी गयी है । इसमें दिगम्बर मान्यतानुसार 'सिंहासन' नामके एक स्वप्नकी कमी है और श्वेताम्बर मान्यतानुसार 'विमान' और 'भवन' दोनों में से कोई एक होना चाहिए।
[ २ ] ग्रन्थके १०५वें उद्देशके निम्न पद्य में महाभारत और रामायणका अन्तरकाल ६४००० वर्ष बतलाया है । यथा -
चउसट्ठि सहस्साईं वरिसाणं अंतरं समक्खायं । तित्थयरे हि महायस भारतरामायणातु ॥१६॥
इस अन्तरकालका समर्थन दोनों परम्पराओं में किसीसे भी नहीं होता, स्वयं ग्रन्थकार द्वारा वर्णित तीर्थंकरोंके अन्तरकालसे भी विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि रामायणकी उत्पत्ति २० वें तीर्थंकर मुनि सुव्रतके कालमें हुई है और महाभारतको उत्पत्ति २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय में हुई है और दोनों तीर्थंकरोंका अन्तरकाल ग्रन्थकारने स्वयं २०वें में ११ लाख बतलाया है, यथा
छच्चेव समसहस्सा वीसइयं अंतरं समुद्दिट्ठं ।
पंचेव हवइ लक्खा जिणंतरं एग वीसइमं ॥ ८१ ॥
[ ३ ] दूसरे उद्देशकी निम्न गाथामें भगवान् महावीरको अष्टकर्मके विनाशसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति बतलायी है जैसा कि उसके निम्न पद्यसे प्रकट है
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अह अट्ठ कम्म रहियस्स तस्स झाणोवजोगजुत्तस्स । सयलजगज्जोयकरं केवलणाणं समुप्पणं ॥३०॥
यह कथन दोनों ही सम्प्रदायसे वाधित है, क्योंकि दोनों ही सम्प्रदायों में चार घातिया कर्मके विनाशसे केवलज्ञानोत्पत्ति मानी है, अष्टकर्मके विनाशसे तो मोक्ष होता है ।
आशा है विद्वज्जन इन सब बातोंवर विचार करके ग्रन्थके निर्माण समय और ग्रन्थकारके सम्बन्ध में विशेष निर्णय करने में प्रवृत्त होंगे ।
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