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[47] जब इसकी रचना हुई तब प्रायः व्याडि के परिभाषासूचन को छोडकर अन्य कोई विशेष साहित्य उपलब्ध नहीं था और इसके बारे में कुछ भी विचार करने की परम्परा का प्रादुर्भाव ही नहीं हुआ होगा । उसी ७० से अधिक परिभाषाओं में बहुत सी परिभाषाएँ सर्वमान्य और सर्वसामान्य होने पर भी केवल सिद्धहेम की परम्परा में इनकी विशेषतः प्रवृत्ति की गई है । तो कुछ परिभाषाएँ केवल सिद्धहेम के लिए ही उपयुक्त है। उदा. डिन्त्वेन कित्त्वं बाध्यते ॥२९॥ स्त्रीखलना अलो बाधकाः स्त्रिया: खलनौ ॥११२॥, क्विबर्थं प्रकृतिरेवाह ॥१३६॥, कृतेऽन्यस्मिन् धातुप्रत्ययकार्ये पश्चात् वृद्धिस्ताद्वाध्योऽट् च ॥८२॥, अनित्यो णिच्चुरादीनाम् ॥१७॥, णिलोपोऽप्यनित्यः ॥१८॥ णिच् संनियोगे एव चुरादीनामदन्तता ॥९९॥, य्वृद् य्वृदाश्रयं च ॥४५॥ त्यादिष्वन्योऽन्यं नासरूपोत्सर्गविधिः ॥११॥ अतः इन सब का जैनेन्द्र परम्परा में स्थान न होना स्वाभाविक ही है। २२. उपसंहार
पिछले दो हजार से ढाई हजार वर्षों से भारत के विभिन्न प्रदेशों में और विशेषतः पूर्वभारत में उत्तरप्रदेश, बिहार, बांग्ला व उडीसा में संस्कृत व्याकरण की विभिन्न परम्पराएँ पैदा हुई । क्वचित् मालवा/मध्यप्रदेश, गुजरात व राजस्थान में भी संस्कृत व्याकरण की नई परम्परा पैदा हुई है । उन व्याकरण परम्पराओं में मूलसूत्रों की वृत्ति, व न्यास इत्यादि की भी रचना हुई है । उनके साथ साथ व्याकरणशास्त्र की रचना में उपयोगी सिद्धांत, जो बाद में व्याकरण के सूत्रों की समजौती देने के लिए अर्थात् सूत्रार्थ निश्चय करने में व शब्दों की सिद्धि या सूत्रों की प्रवृत्ति या निषेध को समझाने में सहायक बनें । ऐसे परिभाषा सम्बन्धित साहित्य की भी रचना प्राय: दो हजार साल से चली आ रही है। आज तक लोगों में ऐसी मान्यता चली आ रही है कि परिभाषाओं का 3 वैयाकरणों की सभा में शास्त्रार्थ या वाद-विवाद में उपयोगी है किन्तु ऐसा नहीं है।
ऊपर निर्देश की गई विभिन्न परम्पराओं के परिभाषासंग्रहा सूची) या परिभाषावृत्तियों में से इसी प्रस्तावना के अन्तिम दो विभाग में व्याडि, शाकटायन व हैम परिभाषाओं की तथा हैम व जैनेन्द्र परिभाषाओं की सामान्यरूपसे तुलना की गई है । वैसे विभिन्न व्याकरण के मूलग्रन्थ, टीकाएँ व परिभाषावृत्तियों का गहन अध्ययन करके विशिष्ट तुलनात्मक और विवेचनात्मक/विश्लेषणात्मक अनुसंधान कार्य किया जा सकता है। यहाँ केवल इसका दिशा निर्देश ही किया गया है। इसी ग्रन्थ / विवेचन के अध्ययन के बाद किसी अध्येता या विद्वान् को अनुसन्धान कार्य की इच्छा पैदा होगी और उसके अनुरूप पुरुषार्थ करके अनुसन्धान कार्य करेंगे तो मेरा यह प्रयत्न सफल होगा।
यही विस्तृत प्रस्तावना लिखने के लिए विभिन्न ग्रन्थों की सहाय मैंने ली है, एतदर्थ उन सभी ग्रन्थकारों व ग्रन्थप्रकाशकों का मैं ऋणी हूँ।
अन्त में विभिन्न व्याकरण परम्पराओं के बारे में यदि मेरी अज्ञानता के कारण कुछ गलत लिखा गया हो तो विद्वज्जनों को अंगुलिनिर्देश करने की विनति करके विरमता हूँ।
मुनि नंदिघोषविजय
वि. सं. २०५२, अश्विन शुक्ल सप्तमी, १९, अक्टुबर, १९९६ दादासाहेब जैन उपाश्रय भावनगर - ३६४ ००१
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