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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) दोनों आगम का भी ग्रहण होता है क्योंकि वे दोनों पत् धातु के अवयव हो गये हैं । यहाँ 'अट्' आगम 'आदि' शब्द से और 'नी' आगम अन्त शब्द से निर्दिष्ट है ।
यहाँ शंका की जाती है कि 'नी' आगम और 'अट्' आगम का ग्रहण इस न्याय से हो जाता है किन्तु द्वित्वभूत जो 'प' है उसका ग्रहण इस न्याय से संभवित नहीं है, क्यों कि वह आगम नहीं है, अतः प्र के बाद आये हुए नि उपसर्ग का णित्व करने में वह धातु और नि के बीच व्यवधायक होगा ही, तो वही व्यवधान किस प्रकार दूर होगा ?
यही द्वित्वजन्य पकार इत्यादि का 'अव्यवधायित्व' अगले 'स्वाङ्गमव्यवधायि' न्याय में कहा जायेगा । इस प्रकार अगले उदाहरण में भी शंका और समाधान जान लेना ।
(इस प्रयोग की साधनिका इस प्रकार है । पत् धातु से 'व्यञ्जनादेरेकस्वराद् भृशाभीक्ष्ण्ये यङ् वा' ३/४/९ से यङ् होगा, उसका 'बहुलं लुप्' ३/४/१४ से लोप होगा । 'सन्यङश्च' ४/ १/३ से आद्य 'प' का द्वित्व होगा । उसमें 'वञ्च -स्रंस-ध्वंस -भ्रंश-कस-पत-पद-स्कन्दोऽन्तो नी:' ४/१/५० से द्वित्वभूत 'प' के अन्त में 'नी' आगम होगा, बाद में अद्यतनी का 'दि' प्रत्यय होगा, उसका 'व्यञ्जनाद्देः सश्च दः' ४/३/७८ से लोप होगा, और 'अड्धातोरादि-' ४/४/२९ से अट् आगम होगा, अन्त में 'अपनीपत्' के पूर्व में आये और 'प्र' बाद आये हुए 'नि' का 'नेमादा-' २/३/ ७९ से 'णि' होगा ।)
तीन आगम हो ऐसा उदाहरण- 'प्रनि' पूर्वक के 'यम्' धातु के यङ्लुबन्त अद्यतनी में प्रथम पुरुष एकवचन का 'दि' प्रत्यय होने पर - प्रण्ययंयंसीद् होता है । ( यहाँ इस प्रयोग में अट्, मु और स् तीन आगम हैं । अट् आगम- 'अड्धातोरादि-' ४/४/२९ से, मु आगम 'मुरतोऽनुनासिकस्य' ४/ १/५१ से और स आगम 'यमिरमिनम्यातः' - ४/४/८६ से होगा ।)
यहाँ प्र के बाद आये हुए 'नि' का 'णि' 'अकखाद्यषान्ते पाठे वा' २/३/८० से होगा ।
(इस प्रयोग की साधनिका पूर्ववत् है केवल 'मु' आगम सम्बन्धित 'म्' का 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/१४ से और धातु के 'म्' का 'शिड्हेऽनुस्वारः' १/३/४० से अनुस्वार होगा और 'यमिरमिनम्यात:'- ४/४/८६ से 'सिच्' के आदि में इट् होगा और धातु के अन्त में 'स्' होगा, उससे पूर्व 'सः सिजस्तेर्दिस्योः ' ४/३/६५ से अद्यतनी के 'दि' प्रत्यय के आदि में 'ईत्' होता है, अन्त में 'इट ईति' ४/३/७१ सिच् का लोप होता है।)
इस न्याय का ज्ञापक 'सेट क्वस्' प्रत्यय का 'उष्' आदेश करने के लिए 'क्वसुष् मतौ च' २/१/१०५ से भिन्न अन्य कोई सूत्र नहीं किया है, वह है। वह इस प्रकार है- 'क्वसुष् मतौ च' २/१/१०५ से अनिट् 'क्वस्' का 'उष्' आदेश 'बभूवुषी' इत्यादि प्रयोग में सिद्ध होता है किन्तु 'पेचुषी' इत्यादि में 'पेचिवस्' के 'घसेकस्वरातः क्वसोः' ४/४/८२ से हुए 'इट्' सहित के 'क्वस्' के प्रत्यय सम्बन्धित 'इट' दिखाई नहीं देता है । अत: उसी 'इट' के लोप के लिए या सेट् 'क्वस्' के उष् आदेश के लिए कोई सूत्र होना चाहिए किन्तु उसके लिए अन्य कोई भी सूत्र नहीं है, वह
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