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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ___ 'नट नृत्तौ', यह धातु णोपदेश नहीं है अत: ['अदुरुपसर्गान्त'-२/३/७७से ] णत्व नहीं होगा अतः 'प्रनटति' । 'णि' होने पर 'प्रनाटयति' । यह धातु 'नृति' अर्थ में ही घटादि माना गया है अतः यहाँ उसका स्वर हुस्व नहीं होता है । णोपदेश धातु के 'प्रणटति, प्रणाटयति' इत्यादि प्रयोग में णत्व होता है । ॥१०॥
'णटि नतौ च', 'च कार' से नृति अर्थ भी लेना । 'पाठे धात्वादेः'-२/३/९७ से 'ण' का 'न' होने पर 'नटते' । यह धातु णोपदेश होने से 'अदुरुपसर्गान्त'-२/३/७७ से ण होने पर 'प्रणटते' प्रयोग होता है। परीक्षा में 'नेटे, नेटाते, नेटिरे' रूप होते हैं । ॥१०१॥
स्वो. न्या.-: 'मार्जण् शब्दे' धातु की तरह 'मर्जण्' धातु भी कुछेक कहते हैं।' 'शौड़ गर्वे' इत्यादि छ: धातु, जो भ्वादि गण में डकारान्त हैं, वे सब अन्य वैयाकरण के मत से टकारान्त हैं । 'स्फट विशरणे' और 'मुट प्रमर्दने' धातु दूसरे के मत से उदित् हैं ।
‘णट नृत्तौ' धातु को ही कुछेक णोपदेश नहीं मानते हैं । 'धातुपारायण' में कहा है कि नन्दी के मत से भ्वादि गण का 'नटि' धातु आत्मनेपदी है और भ्वादि गण में 'नटि' धातु दो हैं , कैसे? एक घयदि गण पठित नति अर्थात् नमन अर्थवाला और दूसरा अघटादि-नृत्य अर्थवाला है, अतः दोनों धातु से आत्मनेपद होता हैं, ऐसा बताने के लिए यहाँ ‘णटि नतौ च' कहा है।
___ 'अल्टि, अति हिंसाऽतिक्रमयोः' । 'अतिक्रम' अर्थात् उल्लङ्घन । 'सन्' प्रत्यय होने पर उसके आदि में 'इट्' होगा और 'टि' का द्वित्व होकर 'व्यञ्जनस्यानादेः'-४/१/४४ से 'ट' का लोप होकर 'अतिट्टिषते' रूप होता है । 'द्' उपान्त्य में है ऐसे 'अट्ट' धातु से 'सन्' प्रत्यय होने पर उसके आदि में 'इट्' होकर, 'न बदनं'-४/१/५ से 'द' के द्वित्व का निषेध होने पर और 'स्वरादे' :-४/१/४ से द्वितीय अंश 'टि' का द्वित्व होगा और तवर्गस्य'-१/३/६० से 'द' का 'ड' करके 'अघोषे प्रथमोऽशिट:'१/३/५० से 'ड' का 'ट' करके 'अट्टिटिषते' रूप होता है। अट्टते' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के धातु से होते हैं । इस प्रकार ही 'अति' धातु के रूप भी ज्ञातव्य हैं । ॥१०२॥
___ 'अति' धातु से 'सन्' प्रत्यय के आदि में 'इट' होने पर 'टित' का द्वित्व होगा और 'व्यञ्जनस्यानादेः'-४/१/४४ से 'त' का लोप होने पर अटिट्टिषते' रूप होता है । 'क्विप्' प्रत्यय होने पर 'पदस्य'२/१/८९ से संयोगान्त का लोप होने पर अट्' रूप होता है। जबकि 'अट्ट' धातु का क्विप् होने पर 'अत्' रूप होता है।
यहाँ 'अट्तु' धातु 'त' अन्तवाला है तथापि 'अटि' धातु के साथ समानार्थक होने से 'ट' अन्तवाले धातु के साथ पाठ किया है । इस प्रकार ही आगे भी जहाँ पाठ में व्यतिक्रम पाया जाता हो, वहाँ यही कारण समझ लेना । ॥१०३॥
'मिटुण स्नेहने' । 'स्नेहन' अर्थात् स्नेह का योग । यह धातु 'उदित्' है, अतः 'न' का आगम होने पर 'मिण्टयति' रूप होता है । ॥१०४॥ ★ न्या. सि.- 'नट नृतौ' धातु 'नृति' अर्थ में ही दिया है, अत: यहाँ 'नृतावेवास्य घटादित्वादन न हुस्व:' के
स्थान पर 'नतावेवास्य' होना चाहिए । श्रीलावण्यसूरिजी ने 'नतावेवास्य' पाठ दिया है।
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