Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 450
________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३९७ है । उसका अर्थ यह है कि 'म्नां धुङ्वर्गे'-१/३/३९ सूत्र में 'म्नां' स्वरूप बहुवचन व्याप्ति के लिए है, अतः जितने भी 'म' या 'न' हो, उनके स्थान पर, उनके बाद आये हुए व्यंजन के वर्ग का ही अंत्य व्यंजन अर्थात् अनुनासिक ही रखा जाता है किन्तु अन्य कोई वर्ण नहीं रखा जाता है। अतः यहाँ पूर्वस्थित 'ऋ' कार के कारण प्राप्त 'न' का 'ण' नहीं होता है किन्तु उसी णत्व का बाध करने के लिए 'न' का भी पुनः 'न' किया जाता है । शिव नामक वैयाकरण 'घृणूयी दीप्तौ' धातु को ही उपान्त्य अकारवाला और णकारान्त मानते हैं। 'पतिंच ऐश्वर्ये, पत्यते, अधिपतिः, अपत्त', पत्स्यते ।' धातुपारायण ग्रंथ में, यह धातु अनुस्वार की इत् संज्ञावाला होने पर भी, उसके 'अपतिष्ट, पतिष्यते' स्वरूप 'इट' सहित उदाहरण दिये हैं, वह आगमशास्त्र की अनित्यता के कारण हो ऐसा लगता है। 'वावृतूचि वरणे,' उदा. भट्टिकाव्य में 'ततो वावृत्यमाना सा'। यह धातु 'ऊदित्' है, अतः 'क्त्वा' होने पर 'वेट्' माना जाता है, अतः 'वावृत्त्वा' और 'वावर्त्तित्वा' रूप होते हैं । वेट होने से ही 'क्त' और 'क्तवतु' के आदि में 'इट्' नहीं होता है, अत: ‘वावृत्तः, वावृत्तवान्' प्रयोग होते हैं । निघण्टु कोश में कहा है "वृत्ते तु वृत्तवावृत्तौ" ॥१३०॥ _ 'वर्तण गतौ' यह धातु षोपदेश होने से 'सन्' होने पर [ नाम्यन्तस्था-२/३/१५ ] से 'स' का 'ष' होकर 'सिष्वर्त्तयिषति' रूप होगा । जबकि अषोपदेश 'स्वर्त्तण्' धातु का 'सिस्वर्त्तयिषति' रूप होता है । 'स्वर्त्तयति' इत्यादि रूप दोनों धातु से समान ही होते हैं । ॥१३१॥ थ अन्तवाले दो धातु हैं । 'पर्थ, पार्थण, प्रक्षेपणे' । ङपरक 'णि' होने पर अपपर्थत्' रूप होता है। जबकि 'पृथण प्रक्षेपणे' धातु से 'णिच्' होने पर 'लघोरुपान्त्यस्य' ४/३/४ से गुण होने पर अपपर्थत्' रूप होता है किन्तु 'ऋदृवर्णस्य' ४/२/३७ से 'ऋ' कार का भी 'ऋ' कार करने पर उसका 'अपीपृथद्' रूप भी होता है। जबकि 'पर्थ' धातु का दूसरा रूप नहीं होता है, इतना विशेष है । शेष ‘पर्थयति' इत्यादि रूप दोनों धातु के समान ही होते हैं। न्या. सि.-: श्रीलावण्यसूरिजी 'वावृतु विवरणे' धातुपाठ देते हैं । १. 'अपप्त' प्रयोग श्रीलावण्यसूरिजी ने दिया है । जबकि 'न्यायसंग्रह' में 'अपत्त' प्रयोग दिया है । 'श्वयत्यसूवचपतः श्वास्थवोचपप्तम्' ४/३/१०३ सूत्र, अङ् होने पर ही 'पप्त' आदेश करता है। आत्मनेपद में 'अङ्' नहीं होता है, अतः 'अपप्त' प्रयोग सच्चा नहीं है। यहाँ मद्रणदोष होने का संभव है। 'अपतिष्ट, पतिष्यते' इत्यादि में हुए 'इट' के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी आगमशास्त्र की अनित्यता का स्वीकार नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि आगमशास्त्र की अनित्यता 'इट्' के अभाव में हेतु बनती है किन्तु 'इट्' करने का कारण नहीं होती है । इस धातु का सेट्त्व परमतानुसारी है, और उसी वजह से धातुपारायण में ये उदाहरण दिये हैं क्योंकि उन्होंने बतायी हई अनिट्कारिका में इस धात का निर्देश नहीं किया गया पूर्ण पंक्ति इस प्रकार है। "ततो वावृत्यमाना सा, रामशालां न्यविक्षत।" शूर्पणखा के वर्णन का यह प्रसंग है और वावृत्यमाना का अर्थ 'वरयन्ती' होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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