Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 451
________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) स्वो. न्या. -: 'अतु बन्धने' धातु के स्थान पर कुछेक वैयाकरण 'इतु' धातु मानते हैं । 'ज्योति: ' शब्द की सिद्धि के लिए कौशिक नामक वैयाकरण 'जुतृङ् भासने' धातु के स्थान पर 'ज्युति' धातु कहते हैं। जबकि आचार्य श्री 'द्युति दीप्तौ' धातु से, 'द्युतेरादेश्च जः' (उणा. ९९१) 'इस्' प्रत्यय करके और आदि 'द' का 'ज' करके 'ज्योति' शब्द की सिद्धि करते हैं । 'कितक्' धातु ह्वादि गण में अतिरिक्त है । 'तपिंच ऐश्वर्ये' धातु में 'प' और 'त' का व्यत्यय होकर यह धातु बना है ऐसा द्रमिल कहते हैं । 'पार्थ' धातु का 'पार्थयति' और अद्यतनी में ङपरक 'णि' होने पर 'अपपार्थत्' रूप होता है | ॥१३३॥ ३९८ अन्तवाले आठ धातु हैं । 'पद स्थैर्ये' का 'पदति' रूप होता है ॥१३४॥ 'कदिष्, ऋदिष्, क्लदिषु वैक्लव्ये' धातु के अनुक्रम से 'कदते, ऋदते, क्लदते' रूप होते हैं । ये तीनों धातु 'षित्' होने से [ षितोऽङ् ५/३/१०७ से ] 'अङ्-' होने पर अनुक्रम से 'कदा ' ॥१३५॥ 'ऋदा' ॥ १३६ ॥ 'क्लदा ' ॥१३७॥ रूप होते हैं । 'मन्दि जाड्ये, मन्दते' । 'क्य' होने पर 'न लोप' होकर 'मद्यते' रूप होता है । । १३८ ॥ 'खुर्द गुधि क्रीडायाम्', 'भ्वादेर्नामिनो' - २/१/६३ से दीर्घ होने पर 'खूर्दते' और परोक्षा में 'चुखूर्दे' इत्यादि रूप होते हैं । ॥१३९॥ 'गुधि' धातु के 'गोधते, जुगुधे' इत्यादि रूप होते हैं। 'वौ व्यञ्जना' - ४/३/२५ से 'क्त्वा' और 'सन्' प्रत्यय विकल्प से 'कित्' होने पर 'गुधित्वा, गोधित्वा' और 'जुगुधिषते, जुगोधिषते' इत्यादि रूप होते हैं । ॥ १४० ॥ 'ऊवेदृग्, ऊबुन्धृग् आलोचने' । 'वेदते, वेदति' । यह धातु 'ऊदित्' होने से 'क्त्वा' होने पर 'वेट्' होगा, अत: 'वेत्त्वा, वेदित्वा' रूप होंगे और 'वेट्' होने से 'क्त, क्तवतु' के आदि में 'इट्’ न होकर 'वेन्न:, वेन्नवान्' प्रयोग होंगे । वेन्ना, [ बेन्ना ] नदी का नाम है । 'ऋदित्' होने से विकल्प से 'अ' होकर ' अवेदत्' और 'अवेदीत्' इत्यादि रूप परस्मैपद में होते हैं । आत्मनेपद में 'अ' न होकर 'सिच्' होने पर 'अवेदिष्ट' रूप होता है | ॥ १४१ ॥ 'ऊबुन्धग्' धातु के 'बुन्धते, बुन्धति । बुबुन्धे, बुबुन्ध । बुन्धिता बुन्धितुम् ' प्रयोग होते हैं । 'ऊदित्' होने से 'क्त्वा' की आदि में विकल्प से 'इट्' होगा और 'न' का लोप होगा, अतः 'बुद्धवा, बुधत्वा' प्रयोग होंगे । ऋदित् होने से अद्यतनी में परस्मैपद में 'ऋदिच्छिव-३/४/६५ से विकल्प से 'अङ्' होने पर 'अबुधत, अबुन्धीत् ' रूप होंगे । आत्मनेपद में 'अङ्' न होकर 'सिच्' होगा, अतः 'अबुन्धिष्ट' रूप होगा | ॥१४२॥ 1 स्वो. न्या. -: कुछेक वैयाकरण 'वृतूचि वरणे' धातु के स्थान पर 'वावृतूचि वरणे' धातु मानते हैं। नन्दी वैयाकरण 'स्वर्त्तण्' धातु को षोपदेश मानते हैं। 'पृथण् क्षेपे' धातु के स्थान पर कुछेक वैयाकरण 'पर्थण्' धातु मानते हैं, तो कुछेक 'पार्थण्' धातु मानते हैं। कंठ नामक वैयाकरण 'बद स्थैर्ये ' धातु को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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