Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 464
________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ४११ करने के लिए 'कृणि विज्ञाने' पाठ चन्द्र नामक वैयाकरण ने किया है, उसका संग्रह भी यहाँ किया गया है। ___ कुछेक आगमिक अर्थात् जैन धर्मग्रंथ-आगम में प्रयुक्त हो, ऐसे धातु भी पाये जाते हैं । उदा. -: १. 'दट्ट आच्छादने, दटिता पट्टशाला' ॥१॥ २. 'विकुर्व विक्रियायाम्', 'भ्वाादे मिनो-' २/१/६३ से होनेवाली दीर्घविधि अनित्य होने से, उसके अभाव में यहाँ 'विकुर्वति, विकुर्वितम्, विकुर्वित्वा' इत्यादि प्रयोग होते हैं । ॥२॥ ३. 'कुर्व करणे', पूर्वोक्त धातु की तरह दीर्घ न होने पर 'कुर्वति' प्रयोग होता है । यही धातु 'वि' उपसर्ग से युक्त होने पर क्त्वा' प्रत्यय होने पर ('क्त्वा' का यप् आदेश होकर) 'विकुळ' प्रयोग होगा ॥३॥ ४. 'उषण निवासे' । यही धातु अकारान्त है । 'णिवेत्त्यास-'५/३/१११ से 'परि'-उपसर्ग से युक्त इस धातु से 'अन' प्रत्यय होने पर 'पर्युषणा' शब्द होता है । ॥४॥ ५. 'युहं उद्धरणे'। 'निर्' उपसर्गे से युक्त 'युह' धातु से 'क्त' प्रत्यय होने पर निर्मूढम्' प्रयोग होता है । ॥५॥ स्वो. न्या. -: अन्य वैयाकरण द्वारा प्रयुक्त परस्मैपद के लिए भी यहाँ पृथक् पाठ किया है। उदा. 'षचि सेचने' धातु का 'धातूनामनेकार्थत्वम्' न्याय से समवाय अर्थ होता है और 'सचते' रूप होता है तथापि 'सचति' स्वरूप परस्मैपद करने के लिए चन्द्र वैयाकरणकृत 'सच समवाये' पाठ का यहाँ निर्देश किया गया है। ___ 'इट्' आगम के उदाहरण इस प्रकार ज्ञातव्य है -: जैसे 'उषू-दाहे' धातु आचार्यश्री के मत से 'ऊदित्' होने से 'क्त्वा' प्रत्यय पर में होने पर वह 'वेट्' होगा और 'उष्ट्वा ' तथा 'उषित्वा' रू प. होंगे तथा 'वेट्' होने से 'क्त' और 'क्तवतु' प्रत्यय की आदि में 'इट्' नहीं होगा, अतः 'उष्टः, उष्टवान्' प्रयोग होंगे। जबकि अन्य वैयाकरण उसे 'ऊदित्' मानतें नहीं है, अतः 'उष दाहे' पाठ किया है, अत: उनके मत से 'क्त्वा' प्रत्यय की आदि में नित्य 'इट' होगा और 'उषित्वा' रूप होगा । वेट्त्व का अभाव होने से 'क्त, क्तवतु' की आदि में नित्य 'इट्' होने से 'उषितः, उषितवान्' रूप ही होंगे । उसी प्रकार 'यमं उपरमे' धातु को आचार्यश्री ऊदित् मानते हैं, अतः ‘क्त्वा' प्रत्यय की आदि में विकल्प से 'इट्' होने पर 'यन्त्वा, यमित्वा' ऐसे दो रूप होंगे । जबकि अन्य वैयाकरण 'यम्' धातु को 'ऊदित्' नहीं मानतें हैं, अत: वे 'यमं उपरमे' पाठ करते हैं । उनके मत से अनुस्वार की इत् संज्ञा होने से ‘यन्त्वा ' एक ही रूप होगा । 'भक्षण अदने' धातु से 'णिच्' अनित्य होने से 'भक्षति' रूप हो सकता है किन्तु 'भक्षते' स्वरूप आत्मनेपद की विशेष सिद्धि करने के लिए 'भक्षी अदने' स्वरूप अन्य वैयाकरणकृत पाठ भी यहाँ बताया है । अतः यहाँ श्रीहेमहंसगणि ने न्यायार्थमञ्जूषा बृहद्वृत्ति में 'प्रायः' शब्द का प्रयोग किया है । अन्त में श्रीहेमहंसगणि ने इस न्याय में दिये हुए धातुओं का, २१ श्लोक में संग्रह किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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