Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 463
________________ ४१० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) • अजङ्गि, जाक्षंजाळे, जङ्कजङ्क' प्रयोग होते हैं । ॥२३०॥ _ 'भक्षी अदने', धातु के 'भक्षते, भक्षति, बभक्षे, बभक्ष, भक्षितुम्, भक्षितम्' इत्यादि प्रयोग होते हैं । ॥२३१॥ 'ऋक्षट् उपशमने,' धातु के 'ऋक्ष्णोति' तथा 'अच्' प्रत्यय होने पर नक्षत्र अर्थ में 'ऋक्षं' शब्द होता है । ॥२३२॥ जिन धातुओं को भ्वादि इत्यादि गण में बताये हों, तथापि चुरादि का ‘णिच्' प्रत्यय करने के लिए, दूसरा अर्थ बताने के लिए, आत्मनेपद या परस्मैपद करने के लिए, या 'इट्' करने के लिए, उसे विशेषित करके अन्य वैयाकरणों ने पृथक् बताये हैं, उन्हीं धातुओं को प्रायः यहाँ बताये गये नहीं हैं, ऊपर जो कुछ बताया है, वह केवल दिग्दर्शन के लिए ही है । इसी युक्ति द्वारा चुरादि का णिच्' सब धातु से (बहुल-प्रकार से) होता है । और धातुओं का अनेकार्थत्व, आत्मनेपद तथा इट् की अनित्यता सब को विदित ही है । स्वो.न्या-: कौशिक नामक वैयाकरण धुतादि गण के 'यंभूङ्' धातु को हकारान्त मानते हैं। 'स्तृहौ, स्तुहौत् हिंसायाम्' धातु को कुछेक षोपदेश मानते हैं । 'दहुण्' धातु को कोई-कोई अतिरिक्त मानते हैं । चंद्र नामक वैयाकरण 'स्तृक्ष गतौ' धातु को षोपदेश मानते हैं । कौशिक नामक वैयाकरण घटदि गण के 'क्षजुङ् गतिदानयोः' धातु में 'क्ष' और 'ज' का व्यत्यय करके 'जक्षुङ्' पाठ करते हैं। ____ अन्य किसी वैयाकरण 'भ्लक्षी भक्षणे' धातु के स्थान पर 'भक्षी' पाठ करते हैं। दूसरे वैयाकरणने 'ऋक्षट्' धातु को स्वादि गण में अतिरिक्त बताया है । इस प्रकार अन्य वैयाकरणों ने बताये हुए धातुओं में से, जिन धातुओं के प्रतियोगी धातुएँ सिद्धहेम में हैं, वे धातु तथा अन्य वैयाकरणों ने बताये हुए अतिरिक्त धातुयें यहाँ बताये गये हैं । चुरादि धातु से स्वार्थ में होनेवाले 'णिच्' प्रत्यय के लिए ही अन्य वैयाकरणों ने मूळ धातु से अलग बताये हैं। उदा. 'धंग धारणे' धातु की तरह 'धुण धारणे' धातु का अन्य वैयाकरणों ने पाठ किया है, अत: 'धारि' धातु के योग में 'मैत्राय शतं धारयति' प्रयोग में 'रु चिक्तृप्यर्थधारिभिः प्रेयविकारोत्तमणेषु' २।२/५५ सूत्र से 'उत्तमर्ण' अर्थात् 'करज लेनेवाला हो ऐसे व्यक्तिवाचक' शब्द से चतुर्थी विभक्ति सिद्ध होती है । जबकि आचार्यश्री के मत से कर्मकर्तरि प्रयोग में 'ध्रियते शतं कर्तृ तत् ध्रियमाणं कश्चित् प्रयुङ्क्ते' ऐसा विग्रह करके बहुल प्रकार से 'णिच्' प्रत्यय होने पर या स्वार्थ में 'णिच्' प्रत्यय होने पर 'धारि' धातु बनेगा और उसके योग में चतुर्थी सिद्ध होती है। ___ जो धातुओं अन्य अर्थ में, अन्य वैयाकरण द्वारा प्रयुक्त है, वे भी यहाँ बतायें हैं । उदा. 'लुटु आलस्ये च', ऐसा पाठ सिद्धहेम में है, तथापि गति अर्थ बताने के लिए 'लुलु गतौ' का पाठ पुनः किया है। अन्य वैयाकरण द्वारा प्रयुक्त आत्मनेपद बताने के लिए भी यहाँ पुन: पाठ किया गया है। उदा. 'कृत् विक्षेपे' धातु का 'धातूनामनेकार्थत्वम्' न्याय से 'विज्ञान' अर्थ होता है। बहुलाधिकार से या 'बहुलमेतन्निदर्शनम्' वचनानुसार 'णिच्' प्रत्यय होकर 'कारयति' सिद्ध होता है तथापि 'कारयते' ऐसा आत्मनेपदी रूप सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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