Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 461
________________ ४०८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) में 'जर्त्सति' धातु के तुदादित्व की शंका दूर करने के लिए और वह भ्वादि धातु है ऐसा बताने के लए 'जर्त्सन्ती' प्रयोग दिया है, अतः हमने भी वही प्रयोग बताया है क्योंकि धातु तुदादि होने पर ही 'अवर्णादश्नोऽन्तो' - २/१/११५ से 'शतृ ' ( अत् ) का ' अन्त्' आदेश विकल्प से होता है और 'जर्सती, जर्त्सन्ती' ऐसे दो रूप हो सकते हैं । ॥ २९८ ॥ स्वो. न्या. -: 'कष, शिष' इत्यादि धातु की तरह 'खष' भी हिंसार्थक है ऐसा कण्ठ नामक वैयाकरण कहते हैं । 'षूष प्रसवे' धातु को कोई-कोई अषोपदेश मानते हैं। तो अन्य चारक इत्यादि तालव्य शकारादि मानते हैं। चंद्र वैयाकरण 'घसुङ् करणे' धातु को मूर्धन्य षकारान्त मानते हैं। अन्य वैयाकरणों ने 'धिषक्' धातु को जुहोत्यादि में अतिरिक्त / ज्यादा बताया है। पुष्यादि गण के 'मुसच्' धातु को अन्य लोग षकारान्त मानते हैं । 'धूशण् कान्तीकरणे' धातु को ही कोई - षकारान्त मानते हैं तो अन्य कोई दंत्य सकारान्त मानते हैं । 'वृषिण शक्तिबन्धे' धातु को ही सामर्थ्यवारण अर्थ में 'धृषिण' के रूप में अन्य वैयाकरण मानते हैं । 'जर्स' धातु को दूसरे लोग अतिरिक्त / ज्यादा कहते हैं । 'ष्णुसच् अदने', 'षः सो' - २ / ३ / ९८ से 'ष' का 'स' होने पर 'स्नुस्यति' रूप होता है । यह धातु षोपदेश होने से परोक्षा में 'सुष्णोस' रूप होगा । ङपरक 'णि' पर में होने पर 'असुष्णुसत् ' रूप तथा सन् परक 'णि' होने पर 'सुष्णोसयिष्यति' रूप होता है । अकेले 'ष्णुस्' धातु से 'सन्' होने पर षत्व होने की प्राप्ति है किन्तु 'णिस्तोरेव' - २ / ३ / ३७ से निश्चित ही षत्व नहीं होगा, अतः 'सुस्नुसिषति' तथा 'सुस्नोसिषति' रूप होंगे क्योंकि 'वौ व्यञ्जनादेः '-४/३/२५ से सेट् 'सन्' विकल्प से किव होता है । ऐसे सेट् 'क्त्वा' भी विकल्प से किद्वद् होने पर 'स्नुसित्वा, स्नोसित्वा' रूप होंगे | ॥२१९॥ 'ष्णसूच् निरसने', यह धातु घटादि है। 'षः सो' - २ / ३ / ९८ से 'ष' का 'स' होगा और घटादि होने से 'णि' होने पर ह्रस्व होकर 'स्नसयति' रूप होगा । 'जि' परक या 'णम् परक णि' होने पर विकल्प से दीर्घ होने 'अस्नासि, अस्नसि, स्नासंस्नासं, स्नसंस्नसं' रूप होते हैं । यह धातु षोपदेश होने से 'सन्' परक 'णि' होने पर 'सिष्णसयिषति' रूप होता है । घटादि 'ष्णस्' धातु को छोड़करअन्य 'ष्णस्' धातु के - 'स्नासयति, अस्नासि, स्नासंस्नासं, सिष्णासयिषति' इत्यादि रूप होते हैं । 'स्नस्यति' इत्यादि रूप दोनों धातु के समान ही होते हैं । ॥ २२० ॥ 'दासद् हिंसायाम्' धातु के 'दास्नोति' इत्यादि रूप होते हैं । ॥ २२९ ॥ 'उध्रसूश् उच्छे', उधस्नाति' । 'हि' (आज्ञार्थ - युष्मदर्थ एकवचन) होने पर 'श्ना' सहित 'हि' का 'आन' आदेश होने पर 'उध्रसान' रूप होता है । यह धातु अनेक स्वरयुक्त होने से परोक्षा में 'आम्' होकर 'उध्रसाञ्चकार', 'सन्' होने पर 'उदिध्रसिषति' और धातु 'ऊदित्' होने से 'क्त्वा' होने पर विकल्प से 'इट्' होने पर उधस्त्वा, उधसित्वा,' रूप होते हैं । उद्दिसिषति, 'उद्' उपसर्ग से युक्त 'ध्रस्नाति' धातु के 'उद्धस्नाति, उद्धसान, उद्दध्रास, उद्धस्य' इत्यादि प्रयोग होते हैं । ॥ २२२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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