Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 459
________________ ४०६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) 'स्वरस्य इर्' (इ: ) ( उणा - ६०६ ) से 'इ' प्रत्यय होगा, बाद में 'ङी' होने पर 'पाली' शब्द बनता हैं । ॥ २०० ॥ स्वो. न्या.-: यही सामण् धातु अकारान्त है, उसे चंद्र नामक वैयाकरण व्यंजनान्त मानते हैं । 'तुरक' धातु को कुछेक अतिरिक्त मानते हैं। 'सुरत् ऐश्वर्ये' धातु को अन्य कोई षोपदेश मानते हैं । 'कद्रुण् अनृतभाषणे' धातु को अन्य वैयाकरण गकारादि मानते हैं । आचार्यश्री की अपनी मान्यतानुसार 'स्खल चलने, दल विशरणे' दोनों धातु घटादि नहीं हैं। 'ठल स्थाने' दूसरों की मान्यतानुसार अषोपदेश हैं । 'गलिण् स्त्रावणे, गालयते, उद्गालयते' । 'णि' अन्तवाले 'गल्' धातु से उणादि का 'स्वरेभ्य इर्'(इ: ) ( उणा-६०६ ) से 'इ' प्रत्यय होने पर 'गालि:', उससे स्त्रीलिङ्ग में 'ङी' करने पर 'गाली' शब्द बनता है | || २०१ ॥ अन्तवाले तीन धातु हैं । १. 'क्षीवृ निरसने, क्षीवति' । 'क्त' प्रत्यय होने पर ' क्षीवितः ' होता है क्योंकि 'क्त' प्रत्यय के साथ 'क्षीवृङ्' धातु का ही 'अनुपसर्गाः क्षीवोल्घकृशपरिकृशफुल्लोत्फुल्लसंफुल्लाः ' ४/२/८० से 'क्षीव' निपातन होता है और वही इष्ट है । ॥ २०२॥ 'चीवी आदानसंवरणयो:' । प्रेरक अद्यतनी में ङपरक 'णि' होने पर 'उपान्त्यस्या' - ४/२/ ३५ से ह्रस्व होकर 'अचीचिवत्' रूप होता है। जबकि 'चीवृग्' धातु 'ऋदित्' होने से प्रेरक अद्यतनी में ङपरक 'णि' होने पर उपान्त्य का ह्रस्व नहीं होगा और 'अचिचीवद्' रूप होगा । 'चीवते' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के धातु से होते हैं । ॥ २०३॥ 'षान्त्वण् सामप्रयोगे' । यही धातु षोपदेश होने से 'स' का 'ष' होने पर 'सिषान्त्वयिषति' प्रयोग, सन् परक 'णि' होने से होता है। जबकि असोपदेश धातु का 'सिसान्त्वयिषति' प्रयोग होता है । 'सान्त्वयति' इत्यादि प्रयोग दोनों धातु के होते हैं । ॥ २०४ ॥ श अन्तवाले चार धातु हैं । १. 'रश शब्दे' । 'रशति' । उणादि का अन प्रत्यय होकर 'रशना' शब्द मेखला अर्थात् डोर अर्थ में होगा । 'मि' प्रत्यय होने पर 'रश्मिः ' तथा णित् 'इ' प्रत्यय होकर 'राशि: ' शब्द बनता है | ॥ २०५ ॥ २. 'वाशृङ् च शब्दे', ङपरक 'णि' प्रत्यय होने पर प्रेरक अद्यतनी में, धातु 'ऋदित्' होने से 'उपान्त्यस्या' - ४/२/ ३५ से ह्रस्व नहीं होगा और 'अववाशत्' रूप होगा। जबकि 'वाशिच्' धातु का स्वर ङपरक 'णि' होने पर ह्रस्व होकर 'अवीवशत्' रूप होगा और 'वाश्यते' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के धातु से सिद्ध होते हैं । ॥ २०६ ॥ ३. 'लशण् लषण् शिल्पयोगे' । 'लाशयति, लाषयति वा दारु' अर्थात् रंदा इत्यादि से लकडी को पतली करता है | ॥२०७॥ स्वो. न्या. -: ' भलि परिभाषणहिंसादानेषु,' धातु के स्थान पर कोई-कोई ओष्ठ्यादि 'बलि' धातु कहते हैं । यहाँ परोक्षा में 'एत्व' का निषेध दंत्योष्ठ्यादि अर्थात् वकारादि धातु का ही बताया है । 'सिलत् उच्छे' धातु को कोई-कोई षोपदेश मानते हैं । 'पुल महत्त्वे', जैसे भ्वादि है वैसे चुरादि में घटादि है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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