________________
चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१)
४०७ ऐसा कोई-कोई मानते हैं । 'मूलण रोहणे' धातु के स्थान पर नन्दी वैयाकरण 'मुलण्' पाठ मानते हैं। 'पलण रक्षणे' धातु के स्थान पर चंद्र वैयाकरण 'पालण' पाठ मानते हैं । यद्यपि 'पल' और 'पाल' दोनों धातु के रूप समान ही होते हैं, तथापि धातुपारायण में चंद्र वैयाकरण के मतानुसार 'पालण' पाठ बताया है। अतः यहाँ भी हमने ऐसा ही कहा है। 'गलिण्' और 'क्षीवृ' धातु को कोई-कोई अतिरिक्त मानते हैं।
४. 'दाशिण दाने, दाशयते' । ऊपरक 'णि' पर में होने पर अद्यतनी में 'अदीदशत' रूप होता है, जबकि 'दाशृग् दाने' धातु 'ऋदित्' होने से ङ परक 'णि' पर में होने पर उपान्त्य का इस्व नहीं होता है, अतः 'अददाशत' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२०८।।
स्वो. न्या.-: 'चीवृग् झषीवत्' धातु को कोई-कोई ऋदित् नहीं मानते हैं, उसका केवल उभयपदित्व बताने के लए 'चीवी' पाठ किया है और 'झषी' धातु आदान तथा संवरण अर्थ में होने से, वही अर्थ हमने चीवी धातु का बताया है। 'सान्त्वण सामप्रयोगे' धातु को कोइक षोपदेश मानते हैं। रश धातु को कोई-कोई अतिरिक्त धातु मानते हैं । वाशिच् धातु को कुछेक ऋदित् मानते हैं । लसण् धातुको कौशिक वैयाकरण शकारान्त मानते हैं, तो अन्य वैयाकरण मूर्धन्य षकारान्त मानते हैं । दाशिण धातु को कुछेक अतिरिक्त धातु कहते हैं।
- ष अन्तवाले आठ धातु हैं । 'खष हिंसायाम्' । 'खषति, चखाष' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२०९॥
"सूष, शूष प्रसवे', अषोपदेश धातु होने से 'ष' नहीं होगा, अत: 'सुसूष' रूप होता है । षोपदेश धातु के 'स' का 'ष' होने पर 'सुषूष' इत्यादि रूप होते हैं । सूषति' इत्यादि रूप दोनों धातुओं के समान ही होते हैं । ॥२१०॥
'शूष-शूषति' । 'अच्' होने पर 'शूषा' शब्द सब्जी की एक जाति अर्थ में होता है। ॥२११॥
'घषुकरणे' । यही धातु 'उदित्' होने से 'न' का आगम होगा और उसका 'शिड्हेऽनुस्वारः' १/३/४० से अनुस्वार होने पर घंषते, जघंषे, घंषिता' इत्यादि प्रयोग होते हैं । जबकि 'घसुङ् करणे' धातु के 'घंसते, जघंसे, घंसिता' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२१२॥
‘धिषक शब्दे', यह धातु ह्वादि है, अतः 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होने पर 'दिधेष्टि' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२१३॥
'मुषच् खण्डने । मुष्यति ।' यह धातु पुष्यादि है, अत: अद्यतनी में 'अङ्' होने पर 'अमुषत्' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२१४॥
'धूष, धूसण् कान्तीकरणे' धातु के 'धूषयति' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२१५॥ 'धूसण' धातु के 'धूसयति' इत्यादि रूप होंगे । ॥२१६॥ 'धृषिण सामर्थ्यवारणे' । इस धातु का 'धर्षयते' रूप होगा । उदा. 'धर्षयतेऽरीन्' । ॥२१७॥
छः धातु स अन्तवाले हैं। 'जर्ल्स परिभाषणहिंसातर्जनेषु' । 'जहँति । जन्तिी स्त्री कुले वा' । यहाँ 'श्यशवः' २/१/११६ से 'शतृ (अत्)' का 'अन्त्' आदेश नित्य होता है । धातुपारायण ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org