Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 453
________________ ४०० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) न्या. सि.-: श्रीलावण्यसूरिजी ने यह श्लोक इस प्रकार दिया है-: यत्र सालप्रतीकाशः कर्णोऽवध्यत संयुगे । तथा नास्ति चेद् भक्षको यत्र, वधकोऽपि न विद्यते । अर्थात् ये दोनों उदाहरण पृथक् पृथक् ही हैं । 'गृध वञ्चने', यह धातु 'णिच्' अन्त स्वरूप में भी इष्ट है, अत: 'प्रलम्भे गृधिवञ्चेः' ३/३/ ८९ से आत्मनेपद होने पर 'गर्द्धयते बटुम्' प्रयोग होता है, जबकि आचार्यश्री के मत से णिगन्त 'गृथ्' से ही 'प्रलम्भे गृधि'-३/३/८९ से आत्मनेपद होता है । ॥१४८॥ न अन्तवाले दो धातु हैं । 'मन स्तम्भे', 'ममान' इत्यादि रूप होते हैं । जबकि मनति' इत्यादि रूप 'म्नां अभ्यासे' धातु से भी होते हैं । ॥१४९॥ 'जनक जनने' यह धातु ह्यादि (जुहोत्यादि) है, अतः 'शित्' प्रत्यय होने पर द्वित्व होकर 'जजन्ति' इत्यादि रूप होते हैं । 'जजान गर्भ मघवा' उदाहरण में 'णिग्' का अर्थ अन्तर्भूत होने से, उसका अर्थ 'इन्द्रोऽजीजनद्' होता है। परीक्षा में 'जज्ञतुः' । उदा. 'जजुः पादाम्बुरुहि तव विभो' [हे विभो ! आपके चरण कमल में पैदा हुए ।] 'जनैच् प्रादुर्भावे' धातु के तो 'जायते, जज्ञे, जज्ञाते, जज्ञिरे' इत्यादि रूप होते हैं । ॥१५०॥ स्वो. न्या.-: 'नाधृङ् नाथूङ' की तरह इस धातु को भी कुछेक णोपदेश धातु मानते हैं और 'नाथङ्' धातु 'याञ्चा, उपताप' इत्यादि चार अर्थ में होने से, यह 'णाधृङ्' धातु भी उसी अर्थ में कहा है। कुछेक वैयाकरण 'साध्' धातु से 'श्य' प्रत्यय इच्छते हैं, अतः यहाँ दिवादि के रूप में पाठ किया है । 'साधंट संसिद्धौ' धातु को कुछेक षोपदेश मानते हैं । 'गृधूच् अभिकाङ्क्षायाम्' धातु, जो दिवादि गण में है, उसे ही कुछेक चुरादि गण में वञ्चन अर्थ में कहते हैं । 'मनिण् स्तम्भे' धातु का 'मानयते' रूप होता है। चांद्र व्याकरण अनुसार 'मनति' रूप होता है, ऐसा 'धातुपारायण' में कहा है, उसकी सिद्धि के लिए 'मन स्तम्भे' पाठ किया है और उदाहरण भी 'मनति' दिया है किन्तु 'मनति' इत्यादि रूप 'म्नां अभ्यासे' धातु के भी होते हैं, अतः 'ममान' ऐसा विशिष्ट रूप दिया है। 'जनक् जनने' धातु ह्वादि में अतिरिक्त बताया है। ग्यारह धातु प अन्तवाले हैं और तीन धातु फ अन्तवाले हैं। प अन्तवाले धातु में प्रथम दो धातु घटादि हैं। 'क्षप प्रेरणे', 'णि' होने पर 'घटादेः' -४/२/२४ से हस्व होने पर 'क्षपयति' रूप होता है । 'उपक्षपयति प्रावृट्' का अर्थ 'प्रावृट् आसन्नीभवति' होता है । 'जि', और 'णम् परक णि' होने पर विकल्प से दीर्घ होने पर 'अक्षापि, अक्षपि, क्षापंक्षापं, क्षपंक्षपं' प्रयोग होता है । जबकि 'क्षपण प्रेरणे' धातु घटादि न होने से और अकारान्त होने से उपान्त्य 'अ' की वृद्धि न होने से 'क्षपयति' इत्यादि रूप समान ही होते हैं किन्तु 'जि' या 'णम् परक णि' होने पर 'घटादेः-' ४/२/२४ से प्राप्त दीर्घ न होने से केवल 'अक्षपि, क्षपंक्षपं' रूप ही होता है । 'अक्षापि और क्षापंक्षापं' रूप नहीं होते हैं, इतनी विशेषता है । ॥१५१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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