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चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१)
४०३ 'षन्ब' धातु के 'ष' का 'ष: सो-'२/३/९८ से 'स' होने पर 'सम्बति, सब्यते, सम्बितः, सम्बा' इत्यादि रूप होते हैं । 'सन्' परक 'णि' होने पर, यह धातु षोपदेश होने से 'ष' होने पर 'सिषम्बयिषति' रूप होता है । ॥१७५॥
"सांबण् सम्बन्धे'। 'साम्बयति' । षोपदेश न होने से षत्व नहीं होगा, अतः 'सन्' होने पर 'सिसाम्बयिषति' रूप होगा। णिच्' अनित्य होने से, णिच्' के अभाव में 'सिसाम्बिषति' रूप होता है। अल्' होने पर ‘साम्बः' शब्द होता है । ॥१७६॥
'कुटुंबिण धारणे' धातु के 'कुटुम्बयते' इत्यादि रूप होते हैं । ॥१७७॥
भ अन्तवाले आठ धातु हैं । 'सुंभ, नभि हिंसायाम्' । यह धातु षोपदेश नहीं है, अतः सन् परक 'णिग्' होने पर षत्व नहीं होगा और 'सुसुम्भयिषति' रूप होगा और प्रेरक अद्यतनी में 'ङ' होने पर 'असुसुम्भत्' रूप होगा। ॥१७८॥
'नभि' धातु द्युतादि है, अतः परस्मैपद में 'अङ्' होने पर प्रानभत्' रूप होगा और आत्मनेपद में 'अङ्' न होकर सिच् होगा और 'प्रानभिष्ट' रूप होगा क्योंकि 'युद्भ्यः '-३/३/४४ से विकल्प से आत्मनेपद होता है । यह धातु णोपदेश नहीं है, अतः यहाँ 'न' का 'ण' नहीं होता है। किन्तु यह धातु णोपदेश होता तो 'प्राणभत्, प्राणभिष्ट' इत्यादि प्रयोग होते हैं । ॥१७९॥
'षंभ भाषणे च' । यहाँ 'च' से हिंसा अर्थ लेना । 'षः सो'-२/३/९८ से 'ष' का 'स' होने पर 'सुम्भति' इत्यादि रूप होते हैं । ङ परक 'णि' होने पर, षोपदेश धातु होने से 'ष' होने पर 'असुषुम्भत्' ओर सन् परक 'णि' होने पर 'सुषुम्भयिषति' रूप होता है । जबकि केवल 'षुभ्' धातु से 'सन्' होने पर षत्व होने की प्राप्ति है किन्तु 'णिस्तोरेव'-२/३/३७ सूत्र से निश्चित ही षत्व का अभाव होने पर 'सुसुम्भिषति' रूप होता है । 'कु' से युक्त षुभ् धातु से 'अच्' होने पर 'कुसुम्भः' शब्द होता है । लक्ष्य इस प्रकार है-: "सावष्टम्भनिशुम्भसुम्भना" | ॥१८०॥
'ष्टभुङ् स्तम्भे' । यह धातु 'ट' परक 'ष' आदिवाला है । आचार्यश्री ने जिसका पाठ किया है, वह धातु प्रयोग में 'ष्टुंग्क्' की तरह 'त' परक 'स' आदिवाला है। षोपदेश करने के लिए ही 'ष्टभुङ्' ऐसा पाठ किया है, अत: 'षः सो'-२/३/९८ से 'ष' का 'स' होता है किन्तु इस धातु के 'ष' का 'स' अन्य आचार्य इच्छते नहीं हैं और यह धातु उदित् होने से 'न' का आगम होने पर 'ष्टम्भते' रूप होता है । 'कित्' प्रत्यय होने पर 'न' का लोप नहीं होता है, अत: 'ष्टाभ्यते' रूप होता है । 'यङ्' होने पर 'टाष्टम्भ्यते' और 'यङ् लुप्' होने पर 'टाष्टम्ब्धि' रूप होता है । सन् प्रत्यय होने पर 'टिष्टम्भिषते' रूप, सन् परक "णि' होने पर 'टिष्टम्भयिषति', अद्यतनी में ङपरक 'णि' होने पर 'अटिष्टम्भित्' रूप होते हैं।
आचार्यश्री ने बताये हुए 'ष्टभुङ्' धातु के 'ष' का 'स' होने पर 'निमित्ताभावे-' न्याय से 'ट' का 'त' होने पर 'स्तम्भते, स्तम्भ्यते, तास्तम्भ्यते, तास्तम्ब्धि' इत्यादि रूप होते हैं और षत्व की प्राप्ति होने पर भी, 'सन्' होने पर 'णिस्तोरेव'-२/३/३७ से निश्चय ही षत्व न होने से 'तिस्तम्भिषते'
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