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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण निषेध होने पर, 'नां घुड्वर्गे'- १/३/३९ से 'ण' के अपवाद में 'न' का 'न' ही रहेगा और ' घृन्तिः ' शब्द होगा ।
और यह धातु 'ऊदित्' होने से 'क्त्वा' प्रत्यय के आदि में विकल्प से 'इट्' होगा और 'सेट् क्त्वा' प्रत्यय के 'कित्त्व' का 'क्वा' ४ / ३ / २९ सूत्र से निषेध होने पर 'घर्णित्वा' प्रयोग होगा । जब 'इट्' नहीं होगा तब 'यमिरमिनमि' - ४ / २ / ५५ से अंत्य व्यंजन का लोप होने पर 'घृत्वा' शब्द होगा । स्वो. न्या. -: 'अड्ट्' धातु अतिरिक्त / ज्यादा है । 'ओलडुण्' धातु के 'ओ' कार को कुछेक वैयाकरण धातु के अंश के स्वरूप में नहीं मानते । चांद्र परम्परा में 'ओलुडुण्' की तरह 'लदुण्' धातु भी है । 'त्रुटि छेदने' धातु को अन्य कुछेक वैयाकरण डकारान्त मानते हैं। 'फण' धातु सिद्धहेम में घटयदि गण में है, जबकि अन्य वैयाकरण की मान्यतानुसार वह अघटादि है । 'अनिच्' प्राणने धातु को ही अन्य वैयाकरण णकारान्त मानते हैं ।
यह धातु 'वेट्' है, अत एव 'इट्' नहीं होगा, अत: 'घृत:, घृतवान्' तथा 'क्ति' प्रत्यय होने पर यमिरमिनमि' - ४ / २ / ५५ से अंत्य 'ण' का लोप होकर 'घृति:' शब्द होता है ।
'तिव्' इत्यादि प्रत्यय होने पर 'घर्णोति, घर्णुते' इत्यादि रूप नकारान्त और णकारान्त ( दोनों प्रकार के ) धातु से समान ही होते हैं । ॥ १२४॥
'घणूयी' धातु के 'घणुते, घणोति, जघाण, जघणे' रूप होते हैं। यह धातु 'ऊदित्' होने से 'क्वा' प्रत्यय के आदि में विकल्प से 'इट्' होगा । जब 'इट्' होगा तब 'घणित्वा' होगा और 'इट्' नहीं होगा तब यमि रमि नमि- ' ४/२/५५ से 'ण' का लोप होने पर 'घत्वा' और 'वेट्' होने से ही 'क्त' और ' क्तवतु' के आदि में 'इट्' न होने पर 'घतः, घतवान्,' रूप होंगे | ॥ १२५ ॥
अन्तवाले छः धातु हैं । 'इतु बन्धने,' 'उदित्' होने से 'न' का आगम होने पर ' इन्तति' रूप होगा। जबकि कर्मणि प्रयोग में 'क्य' प्रत्यय होने पर 'न-लोप' का अभाव होने से 'इन्त्यते ' रूप होता है । 'गुरुनाम्यादे' - ३ / ४/४८ सूत्र से परोक्षा में 'आम्' होने पर ' इन्ताञ्चकार' रूप होता है ।
॥ १२६ ॥
'ज्युति भासने' । उणादि का 'इस्' प्रत्यय होने पर 'ज्योति: ' शब्द होता है | ॥ १२७ ॥
'कितक् ज्ञाने' यह धातु ह्वादि ( जुहोत्यादि) है, अतः 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होकर 'चिकेत्ति' रूप होता है। 'न न चिकेत्ति' अर्थ में 'नखादित्व' से निपातन होने पर 'नाचिकेत: ' शब्द किसी मनुष्य के नाम के स्वरूप में सिद्ध होता है। जबकि 'केतति, केतनं' इत्यादि भ्वादि गण के 'कित निवासे' धातु से सिद्ध होते हैं । ॥ १२८ ॥
स्वो. न्या. -: तनादि गण में जो 'घृणूयी दीप्तौ' धातु है, वह वस्तुतः नकारान्त ही है किन्तु 'रषृवर्णान्नो' - २/३/६३ से 'न' का 'ण' करके णकारान्त पाठ किया है, उसे कोई-कोई कुछेक वैयाकरण स्वाभाविक णकारान्त मानते हैं ।
'घृन्ति' रूप की सिद्धि में 'ण' के अपवाद में 'म्नां धुड्वर्गे' -१ / ३/३९ से 'न' का 'न' ही रहता
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