Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 447
________________ ३९४ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) 'चुड्ड हावकरणे' । 'हाव' अर्थात् भाव का सूचन। 'क्विप्' होने पर पूर्व की तरह 'चुड्, चुट्'। जबकि 'चुड्' धातु से 'क्विप्' होने पर 'चुद्, चुत्' शब्द होते हैं । 'चुड्डुति' इत्यादि रूप दोनों धातु के समान ही होते हैं । ॥११४॥ 'तुडु तोडने' । 'तोडन' अर्थात् दारण (चोरना/फाडना)। उदा. 'कविरहस्य' में "तुडत्यंहः सकलमचिरात्तोडयत्यश्रियं" [ वह सकल पाप का नाश करता है और जल्दी से अकल्याण का भी नाश करता है । ] ॥११५॥ स्वो. न्या.-: 'वुधुण् हिंसायाम्' धातु को ही कुछेक ठकारान्त मानते हैं । 'चुटु अल्पीभावे' धातु को ही कुछेक डकारान्त मानते हैं । 'पेडा' शब्द की सिद्धि के लिए कुछेक 'पिट शब्दे' धातु को ही डकारान्त मानते हैं। जबकि आचार्यश्री ने 'पेलु गतौ' धातु से 'अच्' प्रत्यय करके 'पेला' शब्द सिद्ध किया है और 'ड' तथा 'ल' का ऐक्य प्रसिद्ध ही है । 'कड् कार्कश्ये' इत्यादि तीन धातु जो 'द्' उपान्त्यवाले हैं, उसे ही कुछेक 'ड्' उपान्त्यवाला मानते हैं । 'तुड़' धातु को ही कोई-कोई संयुक्त 'ड' अन्तवाला मानते हैं। 'त्रिविडा अव्यक्ते शब्दे' । 'क्ष्वेडति, अक्ष्वेडीत्' । 'जीत्' होने से 'ज्ञानेच्छार्चार्थजीच छील्यादिभ्यः क्तः' ५/२/९२ से वर्तमानकाल अर्थ में 'क्त' प्रत्यय होने पर 'क्ष्विट्टः' । यहाँ यह धातु आदित् होने से 'आदितः' ४/४/७१ से 'इट्' का निषेध होगा । 'अच्' प्रत्यय होने पर 'क्ष्वेडः' शब्द विष अर्थ में होगा । 'गेहे एव क्ष्वेडति' अर्थ में 'ग्रहादिभ्यो णिन्' ५/१/५३ से 'णिन्' प्रत्यय होगा और 'पात्रेसमितेत्यादयः ३/१/९१ से सप्तमी तत्पुरूष समास होगा और उससे ही सप्तमी का अलुक होगा, अतः 'गेहेक्ष्वेडी' शब्द होगा । 'भिदादि' होने से 'अङ्' होकर 'क्ष्वेडा' शब्द सिंहनाद अर्थ में होता है । ॥११६॥ 'जिक्ष्विडाङ् मोचनस्नेहनयोः' । क्ष्वेडते' । यह धातु द्युतादि है, अतः अद्यतनी में 'धुभ्यः '३/३/४४ से विकल्प से आत्मनेपद होता है, अत: जब आत्मनेपद नहीं होगा तब 'शेषात्'-३/३/ १०० से परस्मैपद होगा, तब यह धातु द्युतादि होने से [ Mदित् द्युतादिपुष्यादेः-३/४/६४ से] अङ्' होने पर 'अक्ष्विडत्' रूप होता है और आत्मनेपद होगा तब 'अङ्' न होकर, 'सिच्' होगा और 'अक्ष्वेडिष्ट' रूप होगा । शीलादि अर्थ में 'इङितो'-५/२/४४ से 'अन' प्रत्यय होने पर 'प्रक्ष्वेडन:' शब्द सर्वलोहमय बाण अर्थ में होता है । ॥११७॥ 'अडट् व्यापतौ', 'अड्णोति' इत्यादि रूप होते हैं । ॥११८॥ स्वो. न्या.-: ‘णद जिक्ष्विदा अव्यक्ते शब्दे' धातु परस्मैपदी है। 'जिश्विदाङ् मोचनस्नेहनयोः' धातु जो द्युतादि गण में है, वह आत्मनेपदी है, उन्हीं दोनों धातुओं को यहाँ ड अन्तवाले बताये हैं। यहाँ पूर्वपक्ष स्वरूप शंका करते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यहाँ लाघव के लिए द्युतादि गण के डकारान्त विडि धातु को 'गित्' करने से ही उभयपद की प्राप्ति हो सकती है, तो 'त्रिविडाग्' पाठ क्यों न किया ? और यहाँ ऐसा भी न कहना चाहिए कि ङित् क्ष्विड धातु ओर अङित् 'क्ष्विड' धातु में अर्थभेद है, अत: ऊपर बताया उसी प्रकार से पाठ करना संभव नहीं है क्योंकि धातुओं का अनेकार्थत्व प्रतीत ही है, अतः यहाँ अर्थ भेद अविरोधी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470